पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/६६

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माधवी (खुश होकर) शुक्र है कि आपको मेरा इतना ध्यान है। अगर ऐसी मर्जी है तो मैं बहुत जल्द लौट आऊँगी!

इन्द्रजीतसिंह—आज तो नहीं जाने देंगे। अहा, देखो कैसी घटा उठी आ रही है, वाह, इस समय भी तुम्हारे जी में कुछ रस नहीं पैदा होता!

इस समय इन्द्रजीतसिंह ने दो-एक बातें जिस ढंग से माधवी से की इसके पहले नहीं की थी इसलिए उसके जी की कली खिली जाती थी, मगर वह ऐसे फेर में पड़ी हुई थी कि जी ही जानता होगा, न तो इन्द्रजीतसिंह को नाखुश करना चाहती थी और न अपने मामूली काम में ही बाधा डालने की ताकत रखती थी। आखिर कुछ सोच-विचार कर इस समय इन्द्रजीतसिंह का हुक्म मानना ही उसने मुनासिब समझा और हँसी-खुशी में दिल बहलाया। आज चारपाई पर लेटे हुए इन्द्रजीतसिंह के पास रह कर उनको अपने जाल में फंसाने के लिए उसने क्या-क्या काम किए, इसे हम अपनी सीधी-सादी लेखनी से लिखना पसन्द नहीं करते, हमारे मनचले पाठक बिना समझे भी न रहेंगे। माधवी को इस बात का बिल्कुल खयाल न था कि शादी होने पर ही किसी से हँसना-बोलना मुनासिब है। वह जी का आ जाना ही शादी समझती थी। चाहे वह अभी तक कुँआरी ही क्यों न हो मगर मेरा जी नहीं चाहता कि मैं उसे कुँआरी लिखूँ, क्योंकि उसकी चाल-चलन ठीक न थी। यह सभी कोई जानते हैं कि खराब चाल-चलन रहने का नतीजा बहुत बुरा होता है मगर माधवी के दिल में इसका गुमान भी न था।

इन्द्रजीतसिंह के रोकने से माधवी अपने मामूली तौर पर जहाँ वह रोज जाती थी आज न गई मगर इस सबब से आज उसका जी बेचैन था। आधी रात के बाद जब इन्द्रजीतसिंह गहरी नींद में सो रहे थे, वह अपनी चारपाई से उठी और जहाँ रोज जाती थी चली गई, हाँ आने में उसे आज बहुत देर लगी। इसी बीच में इन्द्रजीतसिंह की आँख खुली और माधवी का पलंग खाली देखकर उन्हें निश्चय हो गया कि आज भी वह अपने मामूली ठिकाने पर जरूर गई।

वह कौन ऐसी जगह है जहाँ बिना गये माधवी का जी नहीं मानता और ऐसा करने से वह एक दिन भी अपने को क्यों नहीं रोक सकती? इसी सोच-विचार में इन्द्रजीतसिंह को फिर नींद न आई और वह बराबर जागते ही रह गये। जब माधवी आई तब वह जाग रहे थे, मगर इस तरह खुर्राटे लेने लगे कि माधवी को उनके जागते रहने का जरा भी गुमान न हुआ।

इसी सोच-विचार और दाँव-घात में कई दिन और बीत गये और इन्द्रजीतसिंह ने उसका शाम का जाना बिल्कुल रोक दिया। वह अब भी आधी रात को बराबर जाया करती और सुबह होने के पहले ही लौट आती।

एक दिन रात को इन्द्रजीतसिंह खूब होशियार रहे और किसी तरह अपनी आँखों में नींद को न आने दिया, एक बारीक कपड़े से मुंह ढंके चारपाई पर लेटे धीरे-धीरे खर्राटे लेते रहे।

आधी रात के बाद माधवी अपने पलंग पर से उठी और धीरे-धीरे इन्द्रजीतसिंह के पास आकर कुछ देर तक देखती रही। जब उसे निश्चय हो गया कि वह सो रहे हैं तब