पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/८७

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भाइयों को साथ ले मकान से नीचे उतरे। उनको बाहर जाने के लिए मुस्तैद देख कई सिपाही साथ चलने को तैयार हुए। उन्होंने अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और उस पर सवार हो सिर्फ अर्दली के दो सिपाही साथ ले उन दोनों भाइयों के पीछे-पीछे रवाना हुए। दो घण्टे तक बराबर चलने के बाद एक छोटी-सी पहाड़ी के नीचे पहुँच वे दोनों भाई रुके और कोतवाल साहब को घोड़े से उतरने के लिए कहा।

कोतवाल-क्या घोड़ा आगे नहीं जा सकता?

पहला–घोड़ा आगे जा सकता है, मगर मैं एक दूसरी ही बात सोचकर आपको उतरने के लिए कहता हूँ।

कोतवाल-वह क्या?

पहला–जिस औरत के पास आप आये हैं, वह इसी जगह है; दो ही कदम आगे बढ़ने से आप उसे बखूबी देख सकते हैं, मगर मैं चाहता हूँ कि सिवाय आपके ये दोनों प्यादे उसे देखने न पाएँ। इसके लिए मैं किसी तरह जोर नहीं दे सकता, मगर इतना जरूर कहूँगा कि आप आगे बढ़ झाँक कर उसे देख लें, फिर अगर जी चाहे तो इन दोनों को भी साथ ले जायें, क्योंकि वह अपने को गया को रानी बताती है।

कोतवाल-(ताज्जुब से) अपने को गया की रानी बताती है?

दूसरा-जी हाँ।

अब तो कोतवाल साहब के दिल में कोई दूसरा ही शक पैदा हुआ। वह तरह-तरह की बातें सोचने लगे। "गया की रानी तो हमारी माधवी है, यह दूसरी कहाँ से पैदा हुई? क्या वह माधवी तो नहीं है? नहीं-नहीं, वह भला यहाँ क्यों आने लगी! उससे मुझसे क्या सम्बन्ध? वह तो दीवान साहब की हो रही है। मगर वह आई भी हो तो कोई ताज्जुब नहीं, क्योंकि एक दिन हम तीनों दोस्त एक साथ महल में बैठे थे और रानी माधवी यहां पहुंच गई थी, मुझे खूब याद है, उस दिन उसने मेरी तरफ बेढब तरह से देखा था और दीवान साहब की आँखें बचा घड़ी-घड़ी देखती थी, शायद उसी दिन से मुझ पर आशिक हो गई हो! हाय, वह अनोखी चितवन कभी न भूलेगी। अहा, अगर यह वही हो, और मुझे विश्वास हो कि मुझसे प्रेम रखती है तो क्या बात है! मैं ही राजा हो जाऊँगा और दीवान साहब को तो बात-की-बात में खपा डालूँगा! मगर ऐसी किस्मत कहाँ? खैर जो हो, इनकी बात मान जरा झाँक कर देखना तो जरूर चाहिए, शायद ईश्वर ने दिन फेरा ही हो!" ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें सोचते-विचारते कोतवाल साहब घोड़े से उतर पड़े और उन दोनों भाइयों के कहे मुताबिक आगे बढ़े।

यहाँ से पहाड़ियों का सिलसिला बहुत दूर तक चला गया था। जिस जगह कोतवाल साहब खड़े थे, वहाँ दो पहाड़ियाँ इस तरह आपस में मिली हुई थीं कि बीच में कोसों तक लम्बी दरार मालूम पड़ती थी, जिसके बीच मे बहता हुआ पानी का चश्मा और दोनों तरफ छोटे-छोटे दरख्त बहुत भले मालूम पड़ते थे। इधर-उधर बहुत-सी कन्दराओं पर निगाह पड़ने से यही विश्वास होता था कि ऋषियों और तपस्वियों के प्रेमी अगर यहाँ आवें तो अवश्य उनके दर्शन से अपना जन्म कृतार्थ कर सकेंगे।

दरार के कोने पर पहुँच कर दोनों भाइयों ने कोतवाल साहब को बाई तरफ