हरनामसिंह––इस समय मैं इसकी बातों से रंज नहीं हो सकता, क्योंकि इस बेचारे की अवस्था ही दूसरी हो रही है।
मायारानी––इसकी फिक्र जल्द करनी चाहिए। तुम जाओ, वैद्यजी को बुला लाओ।
हरनामसिंह––बहुत अच्छा।
मायारानी––(बिहारी से) तुम मेरे पास आकर बैठो। कहो, तुम्हारा मिजाज कैसा है?
बिहारीसिंह––(मायारानी के पास बैठ कर) मिजाज? मिजाज है, बहुत है, अच्छा है, क्यों अच्छा है सो ठीक है!
मायारानी––क्या तुम्हें मालूम है कि तुम कौन हो?
बिहारीसिंह––हाँ, मालूम है, मैं महाराजधिराज श्री वीरेन्द्रसिंह हूँ। (कुछ सोच कर) नहीं, वह तो अब बुड्ढे हो गये, मैं कुँअर इन्द्रजीतसिंह बनूँगा क्योंकि वह बड़े खूबसूरत हैं, औरतें देखने के साथ ही उन पर रीझ जाती हैं, अच्छा अब मैं कुँअर इन्द्रजीतसिंह हूँ। (सोच कर) नहीं नहीं नहीं, वह तो अभी लड़के हैं और उन्हें ऐयारी भी नहीं आती, और मुझे बिना ऐयारी के चैन नहीं, अतएव मैं तेजसिंह बनूँगा। बस यही बात पक्की रही, मुनादी फिरवा दीजिए कि लोग मुझे तेजसिंह कह के पुकारा करें।
मायारानी––(मुस्कुराकर) बेशक ठीक है, अब हम भी तुमको तेजसिंह ही कह के पुकारेंगे।
बिहारीसिंह––ऐसा ही उचित है। जो मजा दिन भर भूखे रहने में है वह मजा आपकी नौकरी में है, जो मजा डूब मरने में है वह मजा आपका काम करने में है।
मायारानी––सो क्यों?
बिहारीसिंह––इतना दुःख भोगा, लड़े-झगड़े, सिर के बाल नोंच डाले, सब-कुछ किया, मगर अभी तक आँख से अच्छी तरह न देखा। यह मालूम ही न हआ कि किसके लिए किसको फाँसा और उस फँसाई से फँसने वाले की सूरत अब कैसी है!
मायारानी––मेरी समझ में न आया कि इस कहने से तुम्हारा क्या मतलब है?
बिहारसिंह––(सिर पीट कर) अफसोस, हम ऐसे नासमझ के साथ हैं, ऐसी जिन्दगी ठीक नहीं, ऐसा खून किसी काम का नहीं। जो कुछ मैं कह चुका है जब तक उसका कोई मतलब न समझेगा और मेरी इच्छा पूरी न होगी, तब तक मैं किसी से न बोलूँगा, न खाऊँगा, न सोऊँगा, न एक न दो न चार, हजार पाँच सौ कुछ नहीं, चाहे जो हो मैं तो देखूँगा
मायारानी––क्या देखोगे?
बिहारीसिंह––मुँह से तो बोलने वाला नहीं, आपको समझने की गौ हो तो समझिए।
मायारानी––भला कुछ कहो भी तो सही।
बिहारीसिंह––समझ जाइए।