जिसके जवाब में उन्होंने ताज्जुब के साथ कहा, "कोई नहीं।"
लौंडियों के कहने का विश्वास मायारानी को न हुआ, वह देर तक उन लोगों पर गुस्सा करती और बकती-झकती रही। उसे शक हो गया कि इन लोगों ने मेरे साथ दगा की और कुल लौंडियाँ दुश्मनों से मिली हुई हैं, मगर कसूर साबित किए बिना उन सभी को सजा देना-भी उसने उचित न जाना।
डर के मारे मायारानी उस कमरे के अन्दर न गई, बाहर ही एक आरामकुर्सी पर बैठकर उसने बची हुई रात बिताई। रात तो बीत गई मगर सुबह की सुफेदी ने आसमान पर अपना दखल अभी नहीं जमाया था कि एक मालिन का हाथ पकड़े धनपत आ पहुँची और मायारानी को बाहर बैठे हुए देख ताज्जुब के साथ बोली, "इस समय आप यहाँ क्यों बैठी हैं?"
मायारानी––(घबराई हुई आवाज में) क्या कहूँ, आज ईश्वर ने ही मेरी जान बचाई, नहीं तो मरने में कुछ बाकी न था!
धनपत––(ताज्जुब के साथ चौंककर) सो क्यों?
मायारानी––पहले यह तो कहो कि इस मालिन को कैदियों की तरह पकड़ कर यहाँ लाने का क्या सबब है?
धनपत––नहीं, मैं पहले आपका हाल सुन लूँगी तो कुछ कहूँगी।
मायारानी ने धीरे-धीरे अपना पूरा हाल विस्तार के साथ धनपत से कहा जिसे सुनकर धनपत भी डरी और बोली, "इन लौंडियों पर शक करना मुनासिब नहीं है, हाँ जब इस कम्बख्त मालिन का हाल आप सुनेंगी जिसे मैं गिरफ्तार करके लाई हूँ तो आपका जी अवश्य दुखेगा और इस पर शक करना बल्कि यह निश्चय कर लेना अनुचित न होगा कि यह दुश्मनों से मिली हुई है। ये लौंडियाँ जिनके सुपुर्द पहरे का काम है और जिन पर आप शक करती हैं बहुत ही नेक और ईमानदार हैं, मैं इन लोगों को अच्छी तरह आजमा चुकी हूँ।"
मायारानी––खैर, मैं इस विषय में अच्छी तरह सोच कर और इन सभी को आजमा कर निश्चय करूँगी, तुम यह कहो कि इस मालिन ने क्या कसूर किया हैं? यह तो अपने काम में बहुत तेज और होशियार है!
धनपत––हाँ, बाग की दुरुस्ती और गूलबूटों के सँवारने का का काम तो यह बहुत ही अच्छी तरह जानती है मगर इसका दिल नुकीले और विषैले काँटों से भरा हुआ है। आज रात को नींद न आने और कई तरह की चिन्ता के कारण मैं चारपाई पर आराम न कर सकी और यह सोच कर बाहर निकली कि बाग में टहलकर बहलाऊँगी। मैं चुपचाप बाग में टहलने लगी मगर मेरा दिल तरह-तरह के विचारों से खाली न था, यहाँ तक कि सिर नीचा किये टहलते मैं हम्माम के पास जा पहुँची और वहाँ अंगूर की टट्टी में पत्तों की खड़खड़ाहट पाकर घबड़ा के रुक गई। थोड़ी ही देर में जब चुटकी बजाने की आवाज मेरे कान में पड़ी तब तो मैं चौंकी और सोचने लगी कि बेशक यहाँ कुछ दाल में काला है।
माया––उस समय तू अँगूर की टट्टी से कितनी दूर और किस तरफ थी?