पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
96
 

दोनों के पास पहुँची और कमर से खंजर निकाल कर और उसे चमका कर बोली, "इस समय तुम दोनों भले मौके पर मुझे मिल गई हो, आज मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ। अब मैं तुम दोनों से बिना बदला लिये टलने वाली नहीं।"

तारा की यह बात सुन कमलिनी जान-बूझकर काँपने लगी। मालूम होता था कि वह डर से काँप रही है। मनोरमा भी यकायक कमलिनी को मौजूद देख कर घबरा गई, इसके अतिरिक्त उस चमकते हुए खंजर को देखकर उसे विश्वास हो गया कि अब किसी तरह जान नहीं बचती, क्योंकि इसी तरह का खंजर भूतनाथ के हाथ में चुकी थी और उसके प्रबल प्रताप का नमूना उसे मालूम हो चुका था, साथ ही उसे इस बात का भी विश्वास हो गया कि राक्षसी (कमलिनी), जिसने उसे भूतनाथ के हाथ से छुड़ाया, सच्ची और उसकी खैरख्वाह है।

कमलिनी ने तारा को फिर इशारा किया जिसे मनोरमा ने नहीं जाना। पर तारा ने वह खंजर मनोरमा के बदन से लगा दिया और वह बात-की-बात में बेहोश होकर जमीन पर गिर गई। झाड़ी में छिपा हुआ भूतनाथ भी निकल आया और कमलिनी से बोला––

भूतनाथ––जो हो, मगर मेरा काम कुछ भी न हुआ।

कमलिनी––इसमें कोई शक नहीं कि तुम बड़े बुद्धिमान हो, परन्तु कभी-कभी तुम्हारी अक्ल भी हवा खाने चली जाती है। तुम इस बात को नहीं जानते कि तुम्हारा काम पूरा-पूरा हो गया। यकायक तारा के पहुँच जाने से मालूम हुआ कि तुम्हारी किस्मत तेज है, नहीं तो मुझे बहुत-कुछ बखेड़ा करना पड़ता।

भूतनाथ––सो क्या, मुझे साफ समझा दो तो जी ठिकाने हो।

कमलिनी––मेरे पास बैठ जाओ, मैं अच्छी तरह समझा देती हूँ। (तारा की तरफ देख कर) कहो, तुम्हारा आना क्योंकर हुआ?

तारा––मुझे एक ऐसा काम आ पड़ा कि बिना तुमसे मिले कठिनता दूर होने की आशा न रही, लाचार झण्डी टेढ़ी करके तुमसे मिलने की उम्मीद में यहाँ आयी थी।

कमलिनी––अच्छा हुआ कि तुम आईं, इस समय तुम्हारे आने से बड़ा ही काम चला। अच्छा, बैठ जाओ और जो कुछ मैं कहती हूँ, उसे सुनो।

इसके बाद कमलिनी, तारा और भूतनाथ में देर तक बातचीत होती रही जिसे यहाँ पर लिखना हम मुनासिब नहीं समझते, क्योंकि इन लोगों ने जो कुछ करना विचारा है, वह आगे के बयान में स्वयं खुल जायेगा। जब बातचीत से छुट्टी मिली तो मनोरमा को उठा तीनों आदमी पहाड़ी के नीचे उतरे। मनोरमा एक पेड़ के साथ बाँध दी गई। इस काम से छुट्टी पाकर तारा और भूतनाथ वहाँ से अलग हो गए और किसी झाड़ी में छिप कर दूर से इन दोनों को देखते रहे। थोड़ी ही देर बाद मनोरमा होश में आई और अपने को बेबस पाकर चारों तरफ देखने लगी। पास ही में पेड़ से बँधी हुई कमलिनी पर भी उसकी निगाह पड़ी और वह अफसोस के साथ कमलिनी की तरफ देख कर बोली––