पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१११

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मायारानी-मैं तो अपने तिलिस्म से बहुत फायदा उठाती थी।

दारोगा-बेशक ऐसा ही है, मगर उस तिलिस्म में भी जो खास-खास अलभ्य वस्तुएँ हैं, उनका मालिक तिलिस्म तोड़ने वाले के सिवाय और कोई नहीं हो सकता। अच्छा, अब ठहर जा, हम लोग ठिकाने पहुंच गये हैं, यहाँ एक दरवाजा है जिसे खोलकर आगे चलना होगा।

दारोगा की बात सुनकर मायारानी रुक गई, मगर अंधेरे में उसे यह न मालूम हुआ कि बाबाजी क्या कर रहे हैं। दस-बारह पल से ज्यादा देर न लगी होगी कि एक आवाज ठीक उसी प्रकार की आई जैसी लोहे का हल्का दरवाजा खुलने के समय आती है। बाबाजी ने मायारानी का हाथ पकड़ के उसे दो-तीन कदम आगे कर दिया तथा स्वयं पीछे रह गये और फिर उस दरवाजे के बन्द होने की आवाज आई, इसके बाद बाबाजी ने मोमबत्ती जलाई, जिसका सामान दरवाजे के पास ही किसी ठिकाने पर था।

बहुत देर तक अँधेरे में रहने के कारण मायारानी बहुत घबड़ा गई थी। अब रोशनी हो जाने से वह चैतन्य हो गई और आँखें फाड़ कर चारों तरफ देखने लगी। केवल उधर की तरफ जिधर से वह आई थी, लोहे का एक तख्ता दिखलाई दिया, जिसमें दरवाजे का कोई आकार न था, इसके अतिरिक्त सब तरफ पत्थर ही दिखाई पड़ता था और साफ मालूम होता था कि मानवीय उद्योग से पहाड़ काट कर यह रास्ता या सुरंग तैयार की गई है, मगर यह सुरंग इसी जगह पर नहीं समाप्त हुई थी बल्कि बाईं तरफ तीनचार सीढ़ियाँ नीचे उतर के और भी कुछ दूर तक गई हुई थी। मायारानी ने आश्चर्य से चारों तरफ देखने के बाद' बाबाजी से कहा, "यह लोहे की दीवार जो सामने दिखाई पड़ती है निःसन्देह दरवाजा है परन्तु इसमें दरवाजे का कोई आकार मालूम नहीं पड़ता, आपने इसे किस तरकीब से खोला या बन्द किया था?" इसके जवाब में दारोगा ने कहा, "इस दरवाजे को खोलने और बंद करने की तरकीब नियमानुसार इन्द्रदेव की आज्ञा बिना मैं नहीं बता सकता और यह मोमबत्ती भी मैंने इसलिए जलाई है कि (सीढ़ियों की तरफ इशारा करके) इन सीढ़ियों को तू अच्छी तरह देख ले जिसमें उतरने के समय ठोकर न लगे।" इतना कहते ही दारोगा ने मोमबत्ती बुझाकर उसे उसी ठिकाने रख दिया और मायारानी का हाथ पकड़ के सीढ़ियों के नीचे उतरा। मायारानी को अपनी बातों का जवाब न पाने से रंज हुआ, मगर वह कर ही क्या सकती थी, क्योंकि इस समय वह हर तरह से दारोगा के आधीन थी।

सीढ़ियाँ उतरने के साथ ही सामने की तरफ थोड़ी दूर पर उजाला दिखाई दिया और मालूम हुआ कि उस ठिकाने सुरंग समाप्त हुई है। आश्चर्य, डर, चिन्ता और आशा के साथ मायारानी ने यह रास्ता भी त किया और सुरंग के आखिरी दरवाजे के बाहर कदम रखने के साथ ही एक रमणीक स्थान की छटा देखने लगी।

इन समय मायारानी की आँखों के सामने पहाड़ी गुलबूर्टो से हरा-भरा एक चौखटा मैदान था, जिसकी लम्बाई चार सौ गज और चौड़ाई साढ़े तीन सौ गज से ज्यादा न होगी। यह मैदान चारों तरफ से ढलवाँ और सरसब्ज पहाड़ी से घिरा हुआ था जिस पर के पेड़ों और सुन्दर-सुन्दर लताओं के बीच से निकल कर नीरोग हवा के नर्म-नर्म