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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१३३

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आँखों से गर्म आँसू गिरने लगे। तारा ने किशोरी और कामिनी से कहा, "बहिन, तुम जरा यहाँ ठहरो, मैं थोड़ी दूर तक आगे बढ़ कर देखती हूँ कि क्या हाल है, अगर कोई दुश्मन न मिला तो भी सुरंग के दूसरे किनारे पर पहुँच कर दरवाजा बन्द कर देना आवश्यक है। मुझे निश्चय है कि बाहरी दुश्मन इस दरवाजे को नहीं खोल सकते, मगर ताज्जुब है कि कैदियों ने क्योंकर ये दरवाजे खोले।"

किशोरी-ठीक है मगर मेरी राय नहीं है कि तुम आगे बढ़ो। कहीं ऐसा न हो कि दुश्मनों का सामना हो जाय। इससे यही उचित होगा कि यहाँ से लौट चलो और सुरंग तथा तहखाने का मजबूत दरवाजा बन्द करके चुपचाप बैठो फिर जो ईश्वर करेगा देखा जायगा।

तारा-(कुछ सोचकर) बेहतर होगा कि तुम दोनों चली जाओ और सुरंग तथा तहखाने का दरवाजा बन्द करके चुपचाप बैठो और मुझे इस सुरंग की राह में इसी समय निकल जाने दो क्योंकि कैदियों का भाग जाना मामूली बात नहीं है, निःसन्देह वे लोग भारी उपद्रव मचावेंगे और मुझे कमलिनी के आगे शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी। यह तो कहो ईश्वर ने बड़ी कृपा की कि तुम दोनों बहिन शीघ्र ही मिल गई नहीं तो अनर्थ हो ही चुका था और मैं कमलिनी को मुँह दिखाने लायक नहीं रही थी। अब जब तक कैदियों का पता न लगा लूँगी मेरा जी ठिकाने न होगा।

कामिनी-बहिन, तुम यह क्या कह रही हो! जरा सोचो तो सही कि इतने दुश्मनों में तुम्हारा अकेले जाना उचित होगा? और क्या इस बात को हम लोग मान लेंगे?

तारा-(तिलिस्मी नेजे की तरफ इशारा करके) यह एक ऐसी चीज मेरे पास है कि मैं हजार दुश्मनों के बीच में अकेली जाकर फतह के साथ लौट आ सकती हूँ। यद्यपि तुम दोनों ने इस समय इस नेजे की करामात देख ली मगर फिर भी मैं कहती हूँ कि इस नेजे का असल हाल तुम्हें मालूम नहीं है इसी से मुझे रोकती हो।

किशोरी--बेशक इस नेजे की करामात मैं देख चुकी हूँ और यह निःसन्देह एक एक अनूठी चीज है मगर फिर भी मैं तुमको अकेले न जाने दूँगी, अगर जिद करोगी तो हम दोनों भी तुम्हारे साथ चलेंगी।

तारा ने बहुत-कुछ समझाया और जोर मारा मगर किशोरी और कामिनी ने एक न मानी और तारा को मजबूर होकर उन दोनों की बात माननी पड़ी। अन्त में यह निश्चय हुआ कि सुरंग के किनारे पर चल कर उसका दरवाजा बन्द कर देना चाहिए और इन बदमाशों को भी घसीटकर ले चलना चाहिए और सुरंग के बाहर कर देना चाहिए, अपने आदमियों को कैद करने की आवश्यकता नहीं है-आखिर ऐसा ही किया गया।

किशोरी, कामिनी और तारा कैदियों को घसीटते हुए ले गईं और आधे घंटे में मुरंग के दूसरे मुहाने पर पहुंची। यह मुहाना पहाड़ी के एक खोह से संबन्ध रखता था और वहाँ लोहे का छोटा सा दरवाजा लगा हुआ था जो इस समय खुला था। तारा ने कैदियों को बाहर फेंक कर दरवाजा बन्द कर दिया और इसके बाद तीनों वहाँ से लौट

च० स०-3-8

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