पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/९६

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नागर-जब तुम मुझ पर कृपा करके इतना काम कर सकते हो तो मेरे जाने की क्या जरूरत है? मैं थोड़े से सिपाही तुम्हारे साथ कर देती हूँ, समय पड़ने पर तुम..

श्यामलाल-बस बस बस, अब मत बोलो, मैं समझ गया कि तुम्हारी नीयत साफ नहीं है। मैं खुदगर्जो का साथ देना उचित नहीं समझता, केवल तुम्हारे ही बारे में नहीं बल्कि मायारानी के बारे में भी जो मेरी साली होती है मेरा यही खयाल है कि वह परले सिरे की खुदगर्ज है, दूसरे को फंसा कर अपना काम निकालना और आप अलग रहना खूब जानती है, मगर मैं क्या करूँ अपनी स्त्री से लाचार हूँ जो मुझसे भी ज्यादा मायारानी के साथ मुहब्बत रखती है और मैं उसे जाने से ज्यादा चाहता हूँ।

श्यामलाल की बातचीत कुछ अजब ढंग की थी जिसमें हर जगह से सचाई की बू पाई जाती थी। बात करने के समय वह अपने चेहरे के उतार-चढ़ाव को ऐसा दुरुस्त रखता था कि होशियार से होशियार आदमी को भी उस पर किसी तरह का शक नहीं हो सकता था। नागर को उसकी बातों पर पूरा विश्वास हो गया और वह इस उम्मीद पर कि राजा गोपालसिंह के भेजे हुए आदमी को अवश्य गिरफ्तार कर लेगी, अपने साथ केवल थोड़े सिपाहियों को लेकर जाने के लिए तैयार हो गई। इसके बाद उसने अपनी कमर से लटकते हुए तिलिस्मी खंजर पर पुनः गम्भीर निगाह डाली, मानो अपने सिपाहियों से ज्यादे उस खंजर पर भरोसा रखती है मगर उसे इस बात का गुमान भी न था कि वह खंजर बड़ी खूबी के साथ बदल दिया गया है।

नागर ने अपनी समझ में श्यामलाल को बहुत कुछ कह-सुनकर मदद के लिए राजी किया और आप उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गई। उसने श्यामलाल से आधी घड़ी की छुट्टी ली और उस कोठरी के अन्दर चली गई जिसके दरवाजे पर पर्दा पड़ा हुआ था। आधी घड़ी के बाद वह बाहर आई और श्यामलाल से बोली, "अब मैं हर तरह से तैयार हो गई, आप चलिए।" इस समय भी नागर उसी पोशाक में थी जिसमें घड़ी भर पहले देखी गयी थी, फर्क इतना ही था कि एक चादर उसके हाथ में थी जिसे फाटक के बाहर होते ही अपने को सिर से पैर तक ढांक लेने की नीयत से वह अपने साथ लाई थी।

श्यामलाल को साथ लिए हुए नागर नीचे उतरी और चक्कर खाती हुई सदर फाटक के पास पहुँची। यहाँ उसने स्याह चादर में अपने को छिपा लिया और फाटक के बाहर रवाना हुई! श्यामलाल ने इस समय मामूली पहरा देने वाले सिपाहियों के अतिरिक्त आठ सिपाही हों से दुरुस्त वहां मौजूद पाये जो फाटक के बाहर होते ही नागर और श्यामलाल के पीछे-पीछे रवाना हुए, नागर को इसके लिए कुछ कहने की जरूरत न पड़ी जिससे श्यामलाल समझ गया कि आधी घड़ी की छुट्टी में नागर ने यह इन्तजाम किया है।

ये दसों आदमी गंगा के किनारे उतरे और वहाँ से तेजी के साथ काशी के छोर पर बहने वाली बरना नदी की तरफ रवाना होकर आधे घण्टे से कुछ ज्यादा देर में वहाँ जा पहुँचे। इस समय रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी और चन्द्रदेव उदय हो रहे थे। बरना नदी पार करने के लिए नदी से बीस गज ऊँचा एक मजबूत पुल बना हुआ था।