सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
121
 

मेरी उम्र लगभग सात-आठ वर्ष के होगी मगर मैं बातचीत और समझ-बूझ में होशियार थी और उस समय की बातें आज भी मुझे इस तरह याद हैं जैसे कल ही की बातें हों।

जाड़े का मौसम था जब से मेरा किस्सा शुरू होता है। मैं अपनी ननिहाल में थी। आधी रात का समय था, मैं अपनी माँ के पास पलंग पर सोई हुई थी। यकायक दरवाजा खुलने की आवाज आई और किसी आदमी को कमरे में आते देख मेरी माँ उठ बैठी, साथ ही इससे मेरी नींद भी टूट गई। कमरे के अन्दर इस तरह यकायक आने वाले मेरे नाना थे जिन्हें देख मेरी माँ को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह पलंग से नीचे उतरकर खड़ी हो गई।

आनन्दसिंह--तुम्हारे नाना का क्या नाम था?

इन्दिरा--मेरे नाना का नाम दामोदरसिंह था और वे इसी शहर जमानिया में रहा करते थे।

आनन्दसिंह--अच्छा, तब क्या हुआ?

इन्दिरा--मेरी माँ को घबराई हुई देखकर नाना साहब ने कहा, "सरयू बेटी, इस समय यकायक मेरे आने से तुझे ताज्जुब होगा और निःसन्देह यह ताज्जुब की बात है भी मगर क्या करूँ किस्मत और लाचारी मुझसे ऐसा कराती है। सरयू, इस बात को मैं खूब जानता हूँ कि लड़की को अपनी मर्जी से ससुराल की तरफ बिदा कर देना सभ्यता के विरुद्ध और लज्जा की बात है मगर क्या करूं, आज ईश्वर ही ने ऐसा करने के लिए मुझे मजबूर किया है। बेटी, आज मैं जबरदस्ती अपने हाथ से अपने कलेजे को निकालकर बाहर फेंकता हूँ अर्थात् अपनी एकमात्र औलाद को (तुझको), जिसे देखे बिना कल नहीं पड़ती थी, जबरदस्ती उसके ससुराल की तरफ बिदा करता हूँ। मैंने सबकी चोरी-चोरी बालाजी को बुलवा भेजा है और खबर लगी है कि दो घण्टे के अन्दर ही वह आना चाहते हैं। इस समय तुझे यह इत्तिला देने आया हूँ कि इसी घण्टे-दो-घण्टे के अन्दर तू भी अपने जाने की तैयारी कर ले !" इतना कहते-कहते नाना साहब का जी उमड़ आया, गला भर गया और उसकी आँखों से टपाटप आँसू की बूंदें गिरने लगीं।

इन्द्रजीतसिंह--बालाजी किसका नाम है?

इन्दिरा--मेरे पिता को मेरी ननिहाल में मब कोई 'बालाजी' कहकर पुकारा करते थे।

इन्द्रजीतसिंह--अच्छा फिर?

इन्दिरा--उस समय अपने पिता की ऐसी अवस्था देखकर मेरी माँ बदहवास हो गई और उखड़ी हुई आवाज में बोली, "पिताजी यह क्या ? आपकी ऐसी अवस्था क्यों हो रही है ? मैं यह बात क्यों देख रही हैं ? जो बात मैंने आज तक नहीं सुनी थी वह क्यों सुन रही हूँ ? मैंने ऐसा क्या कसुर किया है जो आज इस घर से मैं निकाली जाती हूँ?"

दामोदरसिंह ने कहा, "बेटी, तूने कुछ कसूर नहीं किया, सब कसुर मेरा है। जो कुछ मैंने किया है उसी का फल भोग रहा हूँ बस, इससे ज्यादा और मैं कुछ नहीं कहना चाहता। हाँ, तुझसे मैं एक बात की अभिलाषा रखता हूँ, आशा है कि तू अपने बाप की बात कभी न टालेगी। तू खूब जानती है कि इस दुनिया में तुझसे बढ़कर मैं किसी को