पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
139
 

अच्छी तरह पहचानती थी। उन्होंने मुझे गोद में उठा लिया और तहखाने के ऊपर निकल कई पेचीले रास्तों से घूमते-फिरते मैदान में पहुंचे। वहां उनके दो आदमी एक घोड़ा लिए तैयार थे। गदाधरसिंह मुझें लेकर घोड़े पर सवार हो गए, अपने आदमियों को ऐयारी भाषा में कुछ कहकर बिदा किया, और खुद एक तरफ रवाना हो गए। उस समय रात बहुत कम बाकी थी और सवेरा हुआ चाहता था। रास्ते में मैंने उनसे अपनी मां का हाल पूछा, उन्होंने उसका कुल हाल अर्थात् मेरी माँ का उस सभा में पहुँचना, मेरे पिता का भी कैद होकर वहाँ जाना, कलमदान की लूट, तथा मेरे पिता का अपनी स्त्री को लेकर निकल जाना बयान किया और यह भी कहा कि कलमदान को लूट कर ले भागने वाले का पता नहीं लगा। लगभग चार-पाँच कोस चले जाने के बाद वे एक छोटी-सी नदी के किनारे पहुँचे, जिनमें घुटने बराबर से ज्यादा जल न था। उस जगह गदाधरसिंह घोड़े से नीचे उतरे और मुझे भी उतारा, खुर्जी से से कुछ मेवा निकाल कर मुझे खाने को दिया। मैं उस समय बहुत भूखी थी। अस्तु मेवा खाकर पानी पिया, इसके बाद वह फिर मुझे लेकर घोड़े पर सवार हुए और नदी पार होकर एक तरफ को चल निकले। दो घण्टे तक घोड़े को धीरे-धीरे चलाया और फिर तेज किया। दो पहर दिन के समय हम लोग एक पहाड़ी के पास पहुंचे जहाँ बहुत ही गुंजान जंगल था और गदाधरसिंह के चार-पांच आदमी भी वहाँ मौजूद थे। हम लोगों के पहुँचते ही गदाधरसिंह के आदमियों ने जमीन पर कम्बल बिछा दिया, कोई पानी लेने के लिए चला गया, कोई घोड़े को ठंडा करने लगा और कोई रसोई बनाने की धुन में लगा, क्योंकि चावल, दाल इत्यादि उन आदमियों के पास मौजूद था। गदाधरसिंह भी मेरे पास बैठ गये और अपने वटुए में से कागज-कलम-दवात निकाल कर कुछ लिखने लगे। मेरे देखते-ही-देखते तीनचार घण्टे तक गदाधरसिंह ने बटुए में से कई कागजों को निकालकर पढ़ा और उनकी नकल की, तब तक रसोई भी तैयार हो गई। हम लोगों ने भोजन किया और जब विछावन पर आकर बैठे तो गदाधरसिंह ने फिर उन कागजों को देखना और नकल करना शुरू किया। मैं रात भर की जगी हुई थी, इसलिए मुझे नींद आ गई। जब मेरी आँखें खुली तो घण्टे भर रात जा चुकी थी। उस समय गदाधरसिंह फिर मुझे लेकर घोड़े पर सवार हुए और अपने आदमियों को कुछ समझा-बुझा कर रवाना हो गये। दो-तीन घण्टे रात बाकी थी, जब हम लोग लक्ष्मीदेवी के बाप बलभद्रसिंह के मकान पर जा पहुंचे। वलभद्रसिंह में और मेरे पिता में बहुत मित्रता थी। इसलिए गदाधरसिंह ने मुझे वहीं पहुँचा देना उत्तम समझा। दरवाजे पर पहुँचने के साथ ही बलभद्रसिंहजी को इत्तिला करवाई गई। यद्यपि वे उस समय गहरी नींद में सोये हुए थे, मगर सुनने के साथ ही निकल आए और बड़ी खातिरदारी के साथ मुझे और गदाधरसिंह को घर के अन्दर अपने कमरे में ले गए जहाँ सिवाय उनके और कोई भी न था। बलभद्रसिंह ने मेरे सिर पर हाथ फेरा और बड़े प्यार से अपनी गोद में बैठा कर गदाधरसिंह से हाल पूछा। गदाधरसिंह ने सब हाल, जो मैं बयान कर चुकी हूँ, उनसे कहा और इसके बाद नसीहत की कि "इन्दिरा को बड़ी हिफाजत से अपने पास रखिये, जब तक दुश्मनों का अन्न न हो जाय, तब तक इसका प्रकट होना उचित नहीं है, मैं फिर जमानिया जाता हूँ और देखता हूँ कि