पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/२००

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उस समय हम दोनों ने इस बात का जरा भी खयाल न किया कि पण्डितजी सच बोलते हैं या दगा करते हैं। हम दोनों आदमी पण्डितजी को बखूबी जानते थे और उन पर विश्वास करते थे। अतः उसी समय चलने के लिए तैयार हो गये और कोठरी के बाहर निकलकर उनके पीछे-पीछे रवाना हुए। जब मकान के बाहर निकले तो दरवाजे के दोनों तरफ कई आदमियों को टहलते हुए देखा, मगर अँधेरी रात होने और जल्दी-जल्दी निकल भागने की धुन में लगे रहने के कारण उन लोगों को पहचान न सके। इसी लिए नहीं कह सकती कि वे लोग गदाधरसिंह के आदमी थे या किसी दूसरे के। उन आदमियों ने हम लोगों से कुछ नहीं पूछा और हम दोनों बिना किसी रुकावट के पण्डितजी के पीछे-पीछे जाने लगे। थोड़ी दूर जाकर दो आदमी और मिले, एक के हाथ में मशाल थी और दूसरे के हाथ में नंगी तलवार। निःसन्देह वे दोनों आदमी मायाप्रसाद के नौकर थे जो हुक्म पाते ही हम लोगों के आगे-आगे रवाना हुए। उस पहाड़ी से नीचे उतरने का रास्ता बहुत ही पेचीला और पथरीला था। यद्यपि हम दोनों आदमी एक दफे उस रास्ते को देख चुके थे, मगर फिर भी किसी के राह दिखाये बिना वहाँ से निकाल जाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव था, पर एक तो हम लोग मायाप्रसाद के पीछे-पीछे जा रहे थे दूसरे मशाल की रोशनी साथ-साथ थी, इसलिए शीघ्रता से हम लोग पहाड़ी के नीचे उतर आये और पण्डितजी की आज्ञानुसार दाहिनी तरफ घूमकर जंगल ही जंगल चलने लगे। सवेरा होते-होते हम लोग एक खुले मैदान में पहुँचे और वहाँ एक छोटा-सा बगीचा नजर पड़ा। पंडितजी ने हम दोनों से कहा कि तुम लोग बहुत थक गई हो। इस लिए थोड़ी देर तक बगीचे में आराम कर लो, तब तक हम लोग सवारी का बन्दोबस्त करते हैं जिसमें आज ही तुम राजा गोपालसिंह के पास पहुँच जाओ।

मुझे उस छोटे से बगीचे में किसी आदमी की सूरत दिखाई न पड़ी। न तो वहाँ का कोई मालिक नजर आया और न किसी माली या नौकर ही पर नजर पड़ी, मगर बगीचा बहुत साफ और हरा-भरा था। पंडितजी ने अपने दोनों आदमियों को किसी काम के लिए रवाना किया और हम दोनों को उस बगीचे में बेफिक्री के साथ रहने की आज्ञा देकर खुद भी आधी घड़ी के अन्दर ही लौट आने का वादा करके कहीं चले गये। पंडितजी और उनके आदमियों को गये हुए अभी चौथाई घड़ी भी न बीती होगी कि दो आदमियों को साथ लिए हुए कम्बख़्त दारोगा बाग के अन्दर आता हुआ दिखाई पड़ा।



3

दारोगा की सूरत देखते ही मेरी और अन्ना की जान सूख गई और हम दोनों को विश्वास हो गया कि पण्डितजी ने हमारे साथ दगा की। उस समय सिवा जान देने के और मैं क्या कर सकती थी? इधर-उधर देखने पर जान देने का कोई जरिया दिखाई न पड़ा, अगर उस समय मेरे पास कोई हर्बा होता तो मैं जरूर अपने को मार डालती।