पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/२०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
207
 

"कल बारह बजे रात को इसी कमरे में मेरे आने का इन्तजार करो और जागते रहो।"

भूतनाथ ने दो-तीन दफे उस लेख को पढ़ा और फिर लिफाफे में रखकर कमर में खोंस लिया, इसके बाद बलभद्रसिंह की चारपाई के पास गया और चाहा कि उनके सिरहाने जो पत्र रखा गया है। उसे भी उठाकर पढ़े, मगर उसी समय बलभद्रसिंह की आँख खुल गई और चारपाई पर किसी को झुके हुए देख वह उठ बैठा। भूतनाथ पर निगाह पड़ने से वह ताज्जुब में आकर बोला, "क्या मामला है?"

भूतनाथ-इस समय एक ताज्जुब की बात देखने में आई है।

बलभद्रसिंह--वह क्या?

भूतनाथ--तुम पहले जरा सावधान हो जाओ और मुझे अपने पास बैठने दो, तो कहूँ।

बलभद्रसिंह--(भूतनाथ के लिए अपनी चारपाई पर जगह करके) आओ और कहो कि क्या मामला है ? भूतनाथ बलभद्रसिंह की चारपाई पर बैठ गया और उसने जो कुछ देखा था पूरा-

पूरा बयान किया तथा अन्त में कहा कि "पढ़ने के लिए मैं तुम्हारे सिरहाने से चिट्ठी उठाने लगा कि तुम्हारी आँख खुल गई, अब तुम खुद इस चिट्ठी को पढ़ो तो मालूम हो कि क्या लिखा है।" बलभद्रसिंह लिफाफा उठाकर शमादान के पास चला गया और अपने हाथ से लिफाफा खोला। उसके अन्दर एक अंगूठी थी जिस पर निगाह पड़ते ही वह चिल्ला उठा और बिना कुछ कहे अपनी चारपाई पर जाकर बैठ गया।



5

कुमार की आज्ञानुसार इन्दिरा ने पुनः अपना किस्सा कहना शुरू किया।

इन्दिरा--चम्पा ने मुझे दिलासा देकर बहुत-कुछ समझाया और मेरी मदद करने का वादा किया और यह भी कहा कि “आज से तू अपना नाम बदल दे। मैं तुझे अपने घर ले चलती हूँ मगर इस बात का खूब ध्यान रखना कि यदि कोई तुझसे तेरा नाम पूछे तो 'सरला' बताना और यह सब हाल जो तूने मुझसे कहा है अब और किसी से बयान न करना।" मैंने चम्पा की बात कबूल कर ली और वह मुझे अपने साथ चुनारगढ़ ले गई। वहां पहुंचने पर जब मुझे चम्पा की इज्जत और मर्तबे का हाल मालूम हुआ तो मैं अपने दिल में बहुत खुश हुई और मुझे यह विश्वास हो गया कि यहाँ रहने में मुझे किसी तरह का डर नहीं है और इनकी मेहरबानी से मैं अपने दुश्मनों से बदला ले सकूँगी।

चम्पा ने मुझे हिफाजत और आराम से अपने यहाँ रखा और मेरा सच्चा हाल अपनी प्यारी गरवी चपला के सिवाय और किसी से भी न कहा। निःगन्देह उसने मुझे