पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/२१२

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के सिवाय और कुछ भी दिखाई न दिया, उस समय इन्द्रजीतसिंह ने अपने तिलिस्मी ताली लिए हुए वह पुतली खड़ी थी। ढूंढ़ने और गौर से देखने पर दोनों भाइयों को मालूम हुआ कि उसी पुतली के दाहिने पैर में एक छेद ऐसा है, जिसमें वह तलवार जो पुतली के हाथ से ली गई थी बखूबी घुस जाय। भाई की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने वही पुतली वाली तलवार उस छेद में डाल दी, यहाँ तक कि पूरी तलवार छेद के अन्दर चली गई और केवल उसका कब्जा बाहर रह गया। उस समय दोनों भाइयों ने मजबूती के साथ उस पुतली को पकड़ लिया। थोड़ी देर बाद गोलाम्बर के नीचे से आवाज आई और पहले की तरह पुनः वह गोलाम्बर पुतली सहित घूमने लगा। पहले धीरे-धीरे, मगर फिर क्रमशः तेजी के साथ वह गोलाम्बर घूमने लगा। उस समय दोनों भाइयों के हाथ उस पुतली के साथ ऐसे चिपक गये कि मालूम होता था छुड़ाने से भी नहीं छूटेंगे। वह गोलाम्बर घूमता हुआ जमीन के अन्दर धंसने लगा और सिर में चक्कर आने के कारण दोनों भाई बेहोश हो गए।

जब वे होश में आये तो आँखें खोलकर चारों तरफ देखने लगे, मगर अंधकार खंजर के जरिये से रोशनी की और इधर-उधर देखने लगे। अपने छोटे भाई को पास ही में बैठे पाया और उस पुतली को भी टुकड़े-टुकड़े हुई उसी जगह देखा, जिसके टुकड़े कुछ गोलाम्बर के ऊपर और कुछ जमीन पर छितराये हुए थे।

इस समय भी दोनों भाइयों ने अपने को उसी गोलाम्बर पर पाया और इससे वे समझे कि यह गोलाम्बर ही धंसता हुआ इस नीचे वाली जमीन के साथ आ लगा है, मगर जब छत की तरफ निगाह की तो किसी तरह का निशान या छेद न देखकर छत को बराबर और बिल्कुल साफ पाया। अब जहाँ पर दोनों भाई बैठे थे, वह कोठरी बनिस्बत ऊपर वाले (या पहले) कमरे के बहुत छोटी थी। चारों तरफ तरह-तरह के कल-पुर्जे दिखाई दे रहे थे। जिनमें से निकलकर फैले हुए लोहे के तार और लोहे की जंजीरें जाल की तरह विल्कुल कोठरी को घेरे हुए थीं। बहुत-सी जंजीरें ऐसी थीं, जो छत में, बहुत-सी दीवार में, और बहुत-सी जमीन के अन्दर घुसी हुई थीं। इन्द्रजीतसिंह के सामने की तरफ एक छोटा-सा दरवाजा था। जिसके अन्दर दोनों कुमारों को जाना पड़ता। अस्तु दोनों कुमार गोलांबर के नीचे उतरे और तारों तथा जंजीरों से बचते हुए उस दरवाजे के अन्दर गए। वह रास्ता एक सुरंग की तरह था जिसकी छत, जमीन और दोनों तरफ की दीवारें मजबूत पत्थर की बनी हुई थीं। दोनों कुमार थोड़ी दूर तक उसमें बराबर चलते गये और इसके बाद एक ऐसी जगह पहुंचे, जहां ऊपर की तरफ निगाह करने से आसमान दिखाई देता था। गौर करने से दोनों कुमारों को मालूम हुआ कि यह स्थान वास्तव में कुएँ की तरह है। इसकी जमीन (किसी कारण से) बहुत ही नरम और गुदगुदी थी। बीच में एक पतला लोहे का खंभा था और खंभे के नीचे जंजीर के सहारे एक खटोली बंधी हुई थी जिस पर दो-तीन आदमी मजे में बैठ सकते थे। खटोली से ढाई-तीन हाथ ऊंचे (खंभे में) एक ची लगी हुई थी और ची के साथ एक ताम्र- पत्र बँधा हुआ था। इन्द्रजीतसिंह ने ताम्रपत्र को पढ़ा, बारीक-बारीक हरफों में यह लिखा था-