पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/२२४

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गये, तीन-चार कदम जाने के बाद नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ मिलीं। इन्द्रजीतसिंह अपने हाथ में तिलिस्मी खंजर लिए हुए रोशनी कर रहे थे।

दोनों भाई सीढ़ियाँ उतरकर नीचे चले गए और इसके बाद उन्हें एक बारीक सुरंग में चलना पड़ा। थोड़ी देर बाद एक और दरवाजा मिला, उसमें भी ताला लगा हुआ था। आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर से उसकी भी जंजीर काट डाली और दरवाजा खोलकर दोनों भाई उसके भीतर चले गये।

इस समय दोनों कुमारों ने अपने को एक बाग में पाया। यह बाग छोटे-छोटे जंगली पेड़ों और लताओं से भरा हुआ था। यद्यपि यहाँ की क्यारियाँ निहायत खूबसूरत और संगमर्मर के पत्थर से बनी हुई थीं, मगर उनमें सिवाय झाड़-झंखाड़ के और कुछ न था। इसके अतिरिक्त और भी चारों तरफ एक प्रकार का जंगल हो रहा था, हाँ दो-चार पेड़ फलों के वहाँ जरूर थे और एक छोटी-सी नहर भी एक तरफ से आकर बाग में घूमती हुई दूसरी तरफ निकल गई थी। बाग के बीचोंबीच में एक छोटा-सा बँगला बना हुआ था जिसकी जमीन, दीवार और छत इत्यादि सब पत्थर की और मजबूत बनी हुई थीं, मगर फिर भी उसका कुछ भाग टूट-फूटकर खराब हो रहा था।

जिस समय दोनों कुमार इस वाग में पहुँचे उस समय दिन बहुत कम बाकी था और ये दोनों भाई भी भूख-प्यास और थकावट से परेशान हो रहे थे ! अतः नहर के किनारे जाकर दोनों ने हाथ-मुंह धोया और जरा आराम लेकर जरूरी कामों के लिए चले गये। उससे छुट्टी पाने के बाद दो-चार फल तोड़कर खाये और नहर का जल पीकर इधर-उधर घूमने-फिरने लगे। उस समय उन दोनों को यह मालूम हुआ कि जिस दरवाजे की राह से वे दोनों इस भाग में आये थे, वह आप-से-आप ऐसा बन्द हो गया कि उसके खुलने की कोई उम्मीद नहीं।

दोनों भाई घूमते हुए बीच वाले बँगले में आये। देखा कि तमाम जमीन कूड़ा- कर्कट से खराब हो रही है। एक पेड़ से बड़े-बड़े पत्तों वाली छोटी डाली तोड़ जमीन साफ की और रात भर उसी जगह गुजारा किया।

सुबह को जरूरी कामों से छुट्टी पाकर दोनों भाइयों ने नहर में दुपट्टा (कमर- बन्द) धोकर सूखने को डाला। और जब वह सूख गया तो स्नान-पूजा से निश्चिन्त हो, दो-चार फल खाकर पानी पीया और पुनः बाग में घूमने लगे।

इन्द्रजीतसिंह--जहां तक मैं सोचता हूँ, यह वही बाग है जिसका हाल तिलिस्मी बाजे से मालूम हुआ था, मगर उस पिंडी का पता नहीं लगता।

आनन्दसिंह--निःसन्देह यह वही बाग है ! यह बीच वाला बँगला हमारा शक दूर करता है और इसीलिए जल्दी करके इस बाग के बाहर हो जाने की फिक्र न करनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि 'मनुवाटिका' यही जगह हो, मगर हम धोखे में आकर इसके बाहर हो जायें। बाजे ने भी यही कहा था कि यदि अपना काम किये बिना 'मनु- वाटिका' के बाहर हो जाओगे, तो तुम्हारे किये कुछ भी न होगा, न तो पुन: 'मनु- वाटिका' में जा सकोगे और न अपनी जान बचा सकोगे।

इन्द्रजीतसिंह--रिक्तगन्थ में भी तो यही बात लिखी है, इसलिए मैं भी यहाँ से

च० स०-4-14