मालूम हुआ कि वह पिण्डी जो जल कर राख हो गई है लगभग तीन हाथ के जमीन के अन्दर थी और इसीलिए राख साफ हो जाने पर तीन हाथ का गड़हा इतना लम्बा-चौड़ा निकल आया कि जिसमें दो आदमी बखूबी जा सकते थे। गड़हे के पेंदे में लोहे का एक तख्ता था, जिसमें कड़ी लगी हुई थी। इन्द्रजीतसिंह ने कड़ी में हाथ डाल कर वह लोहे का तख्ता उठा लिया और आनन्दसिंह को देकर कहा, "इसे किनारे रख दो।"
लोहे का तख्ता हटा देने के बाद ताले के मुंह की तरह एक सूराख नजर आया, जिसमें इन्द्रजीतसिंह ने वही तिलिस्मी ताली डाली जो पुतली के हाथ में से ली थी। कुछ तो वह ताली ही विचित्र बनी हुई थी और कुछ ताला खोलते समय इन्द्रजीतसिंह को बुद्धिमानी से भी काम लेना पड़ा। ताला खुल जाने के बाद जब दरवाजे की तरह का एक पल्ला हटाया गया तो नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ नजर आईं। तिलिस्मी खंजर की रोशनी के सहारे दोनों भाई नीचे उतरे और भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया, क्यों- कि ताले का छेद दोनों तरफ था और वही ताली दोनों तरफ काम देती थी।
पन्द्रह या सोलह सीढ़ियां उतर जाने के बाद दोनों कुमारों को थोड़ी दूर तक एक सुरंग में चलना पड़ा। इसके बाद ऊपर चढ़ने के लिए पुनः सीढ़ियां मिली और तब उसी ताली से खुलने लायक एक दरवाजा मिला। सीढ़ियां चढ़ने और दरवाजा खोलने के बाद कुमारों को कुछ मिट्टी हटानी पड़ी और इसके बाद वे दोनों जमीन के बाहर निकले।
इस समय दोनों कुमारों ने अपने को एक और ही बाग में पाया जो लम्बाई-चौड़ाई में उस बाग से कुछ छोटा था, जिसमें से कुमार आये थे। पहले बाग की तरह यह बाग भी एक प्रकार से जंगल हो रहा था। इन्दिरा की माँ अर्थात् इन्द्रदेव की स्त्री इसी बाग में मुसीबत की घड़ियां काट रही थी और इस समय भी इसी बाग में मौजूद थी इसलिए बनिस्बत पहले बाग के इस बाग का नक्शा कुछ खुलासा तौर पर लिखना आवश्यक है।
इस बाग में किसी तरह की इमारत न थी, न तो कोई कमरा था और न कोई बँगला या दालान था, इसलिए बेचारी सरयू को जाड़े के मौसम की कलेजा दहलाने वाली सर्दी, गर्मी की कड़कड़ाती हुई धूप और बरसात का मूसलाधार पानी अपने कोमल शरीर के ऊपर ही बर्दाश्त करना पड़ता था। हां, कहने के लिए ऊँचे बड़े और पीपल के पेड़ों का कुछ सहारा हो तो हो, मगर बड़े प्यार में पली दिन-रात सुख में ही बितानेवाली एक पतिव्रता के लिए जंगलों और भयानक पेड़ों का सहारा सहारा नहीं कहा जा सकता, बल्कि वह भी उसके लिए डराने और सताने का सामान माना जा सकता है। हां, वहाँ थोड़े से ऐसे पेड़ भी जरूर थे जिनके फलों को खाकर पति-मिलाप की आशा-लता में उलझी हुई अपनी जान को बचा सकती थी और प्यास दूर करने के लिए उस नहर का पानी भी मौजूद था, जो मनुवाटिका में से होती हुई इस बाग में भी आकर बेचारी सरयू की जिन्दगी का सहारा हो रहा था। पर तिलिस्म बनाने वालों ने उस नहर को इस योग्य नहीं बनाया था कि कोई उसके मुहाने को दम भर के लिए सुरंग मानकर एक बाग से दूसरे बाग में जा सके। इस बाग की चहारदीवारी में भी विचित्र कारीगरी की गई थी। दीवार कोई छू भी नहीं सकता था, कई प्रकार की धातुओं से इस बाग की सात हाथ ऊंची