दुखियों को लाभ नहीं पहुँच सकता, क्योंकि न तो वे समर्थ हैं और न तुम उनसे उस अहसान के बदले में प्रेम ही पाकर खुश हो सकती हो।
कमलिनी--आपके इस कहने से मेरी बात नहीं कटती। प्रेमभाव का बर्ताव करके तो अमीर और गरीब, बल्कि गरीब-से-गरीब आदमी भी अहसान का बदला उतार सकता है! और कुछ नहीं तो वह कम-से-कम अपने ऊपर अहसान करने वाले का कुशल-मंगल ही चाहेगा। इसके अतिरिक्त अहसान और अहसान का जस माने बिना दोस्ती भी तो नहीं हो सकती। दोस्ती की तो बुनियाद ही नेकी है! क्या आप उसके साथ दोस्ती कर सकते हैं, जो आपके साथ बदी करे?
कृष्ण जिन्न--अगर तुम केवल उपकार मान लेने ही से खुश हो सकती हो तो चलकर राजा साहब से पूछो कि वह तुम्हारा उपकार मानते हैं या नहीं, या उनको कहो कि उपकार मानते हों तो इसकी मुनादी करवा दें, जैसा कि लक्ष्मीदेवी ने इन्द्रदेव का उपकार मानकर किया था।
लक्ष्मीदेवी--(शरमा कर) मैं भला उनके अहसान का बदला क्योंकर अदा कर सकती हूँ और मुनादी कराने से होता ही क्या है?
कृष्ण जिन्न--शायद राजा गोपालसिंह भी यही सोच कर चुप बैठ रहे हों और दिल में तुम्हारी तारीफ करते हों।
लक्ष्मीदेवी--(कमलिनी से) तुम व्यर्थ की बातें कर रही हो। इस वाद-विवाद से क्या फायदा होगा! मतलब तो इतना ही है कि मैं उस घर में नहीं जाना चाहती जहाँ अपनी इज्जत नहीं, पूछ नहीं, चाह नहीं और जहाँ एक दिन भी रही नहीं।
कृष्णा--अच्छा इन सब बातों को जाने दो, मैं एक दूसरी बात कहता हूँ उसका जवाब दो।
कमलिनी--कहिए।
कृष्णा--जरा विचार करके देखो कि तुम उनको तो बेमुरौवत कहती हो, इसका खयाल भी नहीं करतीं कि तुम लोग उनसे कहीं बढ़कर बेमुरौवत हो! राजा गोपालसिंह एक चिट्ठी अपने हाथ से लिखकर तुम्हारे पास भेज देते तो तुम्हें सन्तोष हो जाता मगर चिट्ठी के बदले में मुझे भेजना तुम लोगों को पसन्द न आया! अच्छा, अहसान जताने का रास्ता तो तुमने खोल ही दिया है, खुद गोपालसिंह पर अहसान बता चुकी हो, तो अगर अब मैं भी यह कहूँ कि मैंने भी तुम लोगों पर अहसान किया है तो क्या बुराई है?
कमलिनी--कोई बुराई नहीं है और इसमें कोई सन्देह भी नहीं है कि आपने हम लोगों पर बहुत बड़ा अहसान किया है और बड़े वक्त पर ऐसी मदद की है कि कोई दूसरा कर ही नहीं सकता था। हम लोगों का बाल-बाल आपके अहसान से बँधा हुआ है।
कृष्ण जिन्न--तो अगर मैं ही राजा गोपालसिंह बन जाऊँ तो।
कृष्ण जिन्न की इस आखिरी बात ने सभी को चौंका दिया। लक्ष्मीदेवी, कमलिनी