पचासों को जमीन पर सुलाया जो अपने ही साथियों के पैरों-तले रौंदे जाकर बेकाम हो गये। इन्द्रदेव ने जो चारों गेंद निकाले थे उन्होंने तो अजीब ही तमाशा दिखाया। इन्द्रदेव ने उन गेंदों को बारी-बारी से दुश्मनों के बीच में फेंका जो ठेस लगने के साथ ही आवाज देकर फट गए और उनमें से निकले हुए आग के शोलों ने बहुतों को जलाया और बेकाम किया। जब दुश्मनों ने देखा कि हम राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके साथियों का कुछ भी न कर सके और उन्होंने हमारे बहुत से साथियों को मारा और बेकाम कर दिया, तो वे लोग भागने की फिक्र में लगे। मगर वहाँ से भाग जाना भी असम्भव था क्योंकि वहाँ से निकल भागने का रास्ता उन्हें मालूम न था। कल्याणसिंह जिस राह से उन सब को इस तहखाने में लाया था उसे यदि वन्द भी न कर देता तो उस घूम-घुमौवे और पेचीले रास्ते का पता लगाकर निकल जाना कठिन था।
आधी घड़ी से ज्यादा देर तक मौत का बाजार गर्म रहा। दुश्मन लोग मारे जाते थे और ऐयारों को सरदारों के गिरफ्तार करने की फिक्र थी, इसी बीच में तहखाने के ऊपरी हिस्से से किसी औरत के चिल्लाने की आवाज आने लगी और सभी का ध्यान उसी तरफ चला गया। तेजसिंह ने भी उसे कान लगाकर सुना और कहा, "ठीक किशोरी की आवाज मालूम पड़ती है !"
"हाय रे, मुझे बचाओ, अव मेरी जान न बचेगी, दुहाई राजा वीरेन्द्रसिंह की !"
इस आवाज ने केवल तेजसिंह ही को नहीं, बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह को भी परे- शान कर दिया। वह ध्यान देकर उस आवाज को सुनने लगे। इसी बीच में एक दूसरे आदमी की आवाज भी उसी तरफ से आने लगी। राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके साथियों ने पहचान लिया कि यह उसी की आवाज है जो कैदखाने की कोठरी में कुछ देर पहले गुप्त रीति से बातें कर रहा था और जिसने दुश्मनों के आने की खबर दी थी। वह आवाज यह थी-
"होशियार होशियार, देखो यह चाण्डाल बेचारी किशारी को पकड़े लिए जाता है। हाय, बेचारी किशोरी को बचाने की फिक्र करो ! रह तो जा नालायक, पहले मेरा मुकाबला कर ले !!"
इस आवाज ने राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह इन्द्रदेव और उनके साथियों को बहुत ही परेशान कर दिया और वे लोग घबराकर चारों तरफ देखने तथा सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।
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हम ऊपर लिख आये हैं कि इन्द्रदेव ने भूतनाथ को अपने मकान से बाहर न जाने दिया और अपने आदमियों को यह ताकीद करके कि भूतनाथ को हिफाजत और खातिर- दारी के साथ रक्खें, रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हो गया।