पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/७६

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हमने ऊपर लिखा है कि शेरअलीखाँ को बड़ी खातिरदारी और इज्जत के साथ रोहतासगढ़ में रखा गया क्योंकि उसने अपने कसूरों की माफी मांगी थी और तेजसिंह ने उसे माफी दे भी दी थी । अब हम उस रात का हाल लिखते हैं जिस रात राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और इन्द्रदेव वगैरह तहखाने के अन्दर गये थे और यकायक आ पड़ने वाली मुसीबत में गिरफ्तार हो गये थे। उन लोगों का किसी काम के लिए तहखाने के अन्दर जाना शेरअलीखाँ को मालूम था मगर उसे इन बातों से कोई मतलब न था, उसे तो सिर्फ इसकी फिक्र थी कि भूतनाथ का मुकदमा खतम हो ले तो वह अपनी राजधानी पटने की तरफ पधारे और इसीलिए वह राजा वीरेन्द्रसिंह की तरफ से रोका भी गया था ।

जिस कमरे में शेरअलीखाँ का डेरा था वह बहुत लम्बा-चौड़ा और कीमती असबाब से सजा हुआ था। उसके दोनों तरफ दो कोठरियाँ थीं और बाहर दालान तथा दालान के बाद एक चौखूटा सहन था। उन दोनों कोठरियों में से जो कमरे के दोनों तरफ थों एक में तो सोने के लिए बेशकीमती मसहरी बिछी हुई थी और दूसरी कोठरी में पहनने के कपड़े तथा सजावट का सामान रहता था। इस कोठरी में एक दरवाजा और भी था जो उस मकान के पिछले हिस्से में जाने का काम देता था, मगर इस समय वह बन्द था और उसकी ताली दारोगा के पास थी। जिस कोठरी में सोने की मसहरी थी उसमें सिर्फ एक ही दरवाजा था और दरवाजे वाली दीवार को छोड़ के उसकी बाकी तीनों तरफ की दीवारें आबनूस की लकड़ी की बनी हुई थीं जिन पर बहुत चमकदार पालिश किया हुआ था । वही अवस्था उस कमरे की भी थी जिसमें शेरअलीखाँ रहता था।

रात डेढ़ पहर से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। शेरअली खाँ अपने कमरे में मोटी गद्दी पर लेटा हुआ कोई किताब पढ़ रहा था और सिरहाने की तरफ संगमरमर की छोटी-सी चौकी के ऊपर एक शमादान जल रहा था, इसके अतिरिक्त कमरे में और कोई रोशनी न थी। यकायक सोने वाली कोठरी के अन्दर से एक ऐसी आवाज आई जैसे किसी ने मसहरी के साथ ठोकर खाई हो। शेरअलीखाँ चौंक पड़ा और कुछ देर तक उसी कोठरी की तरफ जिसके आगे पर्दा गिरा हुआ था देखता रहा । जब पर्दे को भी हिलते देखा तो किताब जमीन पर रखकर बैठ गया और उसी समय कल्याणसिंह को पर्दा हटा- कर बाहर निकलते देखा। शेरअलीखाँ घबराकर उठ खड़ा हुआ और बड़े गौर से उसे देखकर बोला, "हैं, क्या तुम कुंअर कल्याणसिंह हो?"

कल्याणसिंह--(सलाम करके) जी हां।

शेरअलीखाँ--तुम इस कमरे में कब आये और कब इस कोठरी में गये मुझे कुछ भी नहीं मालूम !

कल्याणसिंह--मैं बाहर से इस कमरे में नहीं आया बल्कि इसी कोठरी में से आ रहा हूँ।

शेरअलीखाँ--सो कैसे ? इस कोठरी में तो कोई दूसरा रास्ता नहीं है!