इन्द्रजीतसिंह–-सो क्यों?
गोपालसिंह--जब तक आप बाहर जाने के लिए रास्ता न बना लेंगे बाहर कैसे जायेंगे और जब तक इस तिलिस्म को आप तोड़ न लेंगे, तब तक बाहर जाने का रास्ता कैसे मिलेगा?
इन्द्रजीतसिंह--जिस रास्ते से आप यहां आये हैं या आप जायेंगे, उसी रास्ते से आपके साथ अगर हम लोग भी चले जायें तो कौन रोक सकता है ?
गोपालसिंह--वह रास्ता केवल मेरे ही आने-जाने के लिए है। आप लोगों के लिए नहीं।
इन्द्रजीतसिंह--(हँसकर) क्योंकि आपसे हम लोग ज्यादा मोटे-ताजे हैं, दरवाजे में अँट न सकेंगे!
गोपालसिंह--(हँसकर) आप भी बड़े मसखरे हैं । मेरा मतलब यह नहीं है कि मैं जानबूझकर आपको नहीं ले जाता बल्कि यहाँ के नियमों का ध्यान करके मैंने ऐसा कहा था, आपने तो तिलिस्मी किताब में पढ़ा ही होगा।
इन्द्रजीतसिंह--हां, हम पढ़ तो चुके हैं और उससे भी मालूम यही होता है कि हम लोग बिना तिलिस्म तोड़े बाहर नहीं जा सकते । मगर अफसोस कि इस किताब का लिखने वाला हमारे सामने मौजूद नहीं । अगर होता तो पूछते कि क्यों नहीं जा सकते ? जिस राह से राजा साहब आए उसी राह से उनके साथ जाने में क्या हर्ज है ?
गोपालसिंह--किसी तरह का हर्ज होगा तभी तो बुजुर्गों ने ऐसा लिखा है ! कौन ठिकाना, किसी तरह की आफत आ जाए तो जीवन-भर के लिए मैं बदनाम हो जाऊँगा। अस्तु, आपको भी इसके लिए जिद न करनी चाहिए, हाँ यदि अपने उद्योग से आप बाहर जाने का रास्ता बना लें तो बेशक चले जायँ।
इन्द्रजीत--(मुस्कुराकर) बहुत अच्छा, आप जाइए, हम अपने लिए रास्ता ढूंढ़ लेंगे।
गोपालसिंह--(हँसकर) मेरे पीछे-पीछे चलकर ! अच्छा आइए।
यह कहकर गोपालसिंह उठ खड़े हुए और उसी कुएं पर चले गए जिसमें पहले दफे उस वक्त कूद कर गायब हो गए थे जब बुड्ढे की सूरत बनाकर आए थे। दोनों कुमार भी मुस्कुराते हुए उनके पीछे-पीछे गए और पास पहुँचने के पहले ही उन्होंने राजा गोपालसिंह को कुएँ के अन्दर कूद पड़ते देखा। यह कुआँ यद्यपि बहुत चौड़ा था तथापि नीचे के हिस्से में सिवाय अन्धकार के और कुछ भी दिखाई न देता था। दोनों कुमार भी जल्दी से उसी कुएँ पर गए और बारी-बारी से कुछ विलम्ब करके कुएँ के अन्दर कूद पड़े।
हम पहले आनन्दसिंह का हाल लिखते हैं जो इन्द्रजीतसिंह के बाद उस कुएँ में कूदे थे । आनन्दसिंह सोचे हुए थे कि कुएँ में कूदने के बाद अपने भाई से मिलेंगे, मगर ऐसा न हुआ । जब उनका पैर जमीन पर लगा तो उन्होंने अपने को नरम-नरम घास पर पाया जिसकी ऊँचाई या तौल का अन्दाजा नहीं कर सकते थे और उसीके सबब से उन्हें चोट की तकलीफ भी बिलकुल न उठानी पड़ी। अन्धकार के सबब से कुछ मालूम न पड़ता था इसलिए दोनों हाथ आगे बढ़ाकर कुंअर आनन्दसिंह उस कुएँ में घूमने लगे। तब