तो तुम कदापि न मिलना।[१]
भैरोंसिंह––(कुछ सोचकर) हाँ ठीक है, मगर आपको यह कैसे निश्चय हुआ कि मैंने राजा गोपालसिंह की बात मान ली?
इन्द्रजीतसिंह––यह इसी से मालूम हो गया कि तुमने अपने बटुए का जिक्र करते समय तिलिस्मी खंजर का जिक्र छोड़ दिया।
भैरोंसिंह––(कुछ सोचकर और शर्मा कर) बेशक यह मुझसे भूल हुई।
आनन्दसिंह––कि उस तिलिस्मी खंजर के लिए भी कोई अनूठा किस्सा गढ़ कर हम लोगों को सुना न दिया।
भैरोंसिंह––(और भी शर्माकर) नहीं, ऐसा नहीं है, उस समय मैं इतना कहना भूल गया कि ऐयारी के बटुए के साथ-साथ वह तिलिस्मी खंजर मुझे उस नकागपोश या पीले मकरन्द से नहीं मिला, उन्होंने कसम खाकर कहा कि तुम्हारा खंजर हममें से किसी के पास नहीं है।
आनन्दसिंह––हाँ-और तुमने मान लिया!
भैरोंसिंह––(हिचकता हुआ) इस जरा-सी भूल के हो जाने पर ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप लोग अपना विश्वास मुझ पर से उठा लें।
इन्द्रजीतसिंह––नहीं-नहीं, इससे हम लोगों का खयाल ऐसा नहीं हो सकता कि तुम भैरोंसिंह नहीं हो या अगर हो भी तो हमारे दुश्मन के साथी बनकर हमें नुकसान पहुँचाया चाहते हो? कदापि नहीं। हम लोग अब भी तुम्हारा उतना ही भरोसा रखते हैं जितना पहले रखते थे, मगर कुछ देर के लिए जिस तरह तुम असली बातों को छिपाते हो, उसी तरह हम भी छिपावेंगे।
अभी भैरोंसिंह इस बात का जवाब सोच ही रहा था कि सामने से एक औरत आती हुई दिखाई पड़ी। तीनों का ध्यान उसी तरफ चला गया। कुछ पास आने और ध्यान देने पर दोनों कुमारों ने उसे पहचान लिया कि इसे हम इस बाग में आने के पहले इन्द्रानी और आनन्दी के साथ नहर के किनारे देख चुके हैं।
आनन्दसिंह––यह भी उन्हीं औरतों में से एक है जिन्हें हम लोग इन्द्रानी और आनन्दी के साथ पहले बाग में नहर के किनारे देख चुके हैं!
इन्द्रजीतसिंह––बेशक, मगर सब-की-सब एक ही खानदान की मालूम पड़ती हैं यद्यपि उम्र में इन सभी के वहुत फर्क नहीं है।
आनन्दसिंह––देखना चाहिए, यह क्या सन्देशा लाती है।
इतने में वह औरत कुमार के पास आ पहुँची और हाथ जोड़कर दोनों कुमारों की तरफ देखती हुई बोली, "इन्द्रानी और आनन्दी ने हाथ जोड़कर आप दोनों से इस बात की माफी माँगी है कि अब वे दोनों आप लोगों के सामने हाजिर नहीं हो सकती।"
इन्द्रजीतसिंह––(ताज्जुब से) सो क्यों?
औरत––उन्हें इस बात का बहुत रंज है कि वे आप लोगों की खातिरदारी
- ↑ देखिए सत्रहवाँ भाग चौदहवाँ बयान।