पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/११९

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भैरोंसिंह––अगर खबर हो भी तो अब मैं कुछ कहने का साहस नहीं कर सकता

आनन्दसिंह––सो क्यों?

भैरोंसिंह––इसलिए कि आप लोग मुझे झूठा समझ चुके हैं।

इन्द्रजीतसिंह––सो तो जरूर है।

भैरोंसिंह––(चिढ़कर) अगर ऐसा ही खयाल है तो अब मैं आप लोगों के साथ रहना भी मुनासिब नहीं समझता।

इन्द्रजीत––मेरी भी यही राय है।

भैरोंसिंह––अच्छा तो (सलाम करता हुआ) जय माया की।

इन्द्रजीतसिंह––जय माया की।

आनन्दसिंह––जय माया की, मगर यह तो मालूम हो कि आप जायँगे कहाँ?

भैरोंसिंह––इससे आपको कोई मतलब नहीं।

इन्द्रजीतसिंह––हाँ साहब, इससे हम लोगों को मतलब नहीं। आप जाइए और जल्द जाइए।

इसके जवाब में भैरोंसिंह ने कुछ भी न कहा और वहाँ से रवाना होकर पूरब तरफ वाली इमारत के नीचे वाली एक कोठरी में घुस गया। इसके बाद मालूम न हुआ कि भैरोंसिंह का क्या हुआ या कहाँ गया। उसके जाने के बाद दोनों कुमार भी धीरे-धीरे उसी कोठरी में चले गए मगर वहाँ भैरोंसिंह दिखाई न पड़ा और न उस कोठरी में से किसी तरफ जाने का रास्ता ही मालूम हुआ।

इन्द्रजीतसिंह––(आनन्द से) क्यों, हम लोगों का खयाल ठीक निकला न!

आनन्दसिंह––निःसन्देह वह झूठा था, अगर ऐसा न होता तो जानकारों की तरह इस कोठरी में घुसकर गायब न हो जाता।

इन्द्रजीतसिंह––बात तो यह है कि तिलिस्म के इस भाग में बहुत समझ-बूझकर काम करना चाहिए जहाँ की आबोहवा अपनों को भी पराया कर देती है।

आनन्दसिंह––मामला तो कुछ ऐसा ही नजर आता है। मेरी राय में तो अब यहाँ चुपचाप बैठना भी व्यर्थ जान पड़ता है। यहाँ से किसी तरफ जाने का उद्योग करना चाहिए।

इन्द्रजीतसिंह––अब आज की रात तो सब करके बिता दो, कल सवेरे कुछ-न-कुछ बन्दोबस्त जरूर करेंगे।

इसके बाद दोनों भाई वहाँ से हटे और टहलते हुए बावली के पास आकर संगमर्मर वाले चबूतरे पर बैठ गए। उसी समय उन्होंने एक आदमी को सामने वाली इमारत के अन्दर से निकलकर अपनी तरफ आते देखा।

यह शख्स वही बुड्ढ़ा दारोगा था जिससे पहले बाग में मुलाकात हा चुकी थी, जिसने नानक को गिरफ्तार किया था और जिसके दिए हुए कमन्द के सहारे दोनों कुमार उस दूसरे बाग में उतर कर इन्द्रानी और आनन्दी से मिले थे।

जब वह कुमार के पास पहुँचा तो साहब-सलामत के बाद कुमारों ने उसे इज्जत के साथ पास बैठाया और यों बातचीत होने लगी