पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/१६३

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जीतसिंह––(मुस्कुराकर) मगर सुना जाता है कि अब भूतनाथ इज्जत और हुर्मत की मीनार पर चढ़कर दुनिया की सैर किया चाहता है और यह बात देवताओं को भी वश में कर लेने वाले मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर नहीं।

इन्द्रदेव––अगर सिफारिश न समझी जाय तो मैं यह कहने का हौसला कर सकता हूँ कि दुनिया में इज्जत और हुर्मत उसी को मिल सकती है, जो इज्जत और हुर्मत का उचित बर्ताव करता हुआ किसी बड़े इज्जत और हुर्मत वाले का कृपापात्र बने।

देवीसिंह––भूतनाथ का खयाल भी आजकल इन्हीं बातों पर है। मैंने बहुत दिनों तक छिपे-छिपे भूतनाथ का पीछा करके जान लिया है कि भूतनाथ को होशियारी, चालाकी और ऐयारी की विद्या के साथ-ही-साथ दौलत की भी कमी नहीं है। अगर यह चाहे तो बेफिक्री के साथ अमीराना ढंग पर अपनी जिन्दगी बिता सकता है, मगर भूतनाथ इसे पसन्द नहीं करता और खूब समझता है कि वह सच्चा सुख जो प्रतिष्ठा, सभ्यता और सज्जनता के साथ सज्जन और मित्र-मण्डली में बैठ कर हँसने-बोलने से प्राप्त होता है और ही कोई वस्तु है और उसके बिना मनुष्य का जीवन वृथा है।

बलभद्रसिंह––बेशक, यही सबब है कि आजकल भूतनाथ अपना समय ऐसे ही कामों और विचारों में बिता रहा है और चाहता है कि आईने में अपना चेहरा बेदाग उसी तरह देख सके जिस तरह हीरा निर्मल जल में, मगर इसके लिए भूतनाथ को अपने पुराने मालिक से भी मदद लेनी चाहिए।

इन्द्रदेव––(कुछ चौंक कर) हाँ, मैं यह निवेदन करना तो भूल ही गया कि आज ही कल में यहाँ रणधीरसिंह भी आने वाले हैं, अस्तु, उनके लिए महाराज को प्रबन्ध कर देना चाहिए।

यह एक ऐसी बात थी जिसने भूतनाथ को चौंका दिया और वह थोड़ी देर के लिए किसी गम्भीर चिन्ता में निमग्न हो गया, मगर उद्योग करके उसने शीघ्र ही अपने दिल को सम्हाला और कहा––

भूतनाथ––क्योंकि वे महाराज के मेहमान बनकर इस मकान में रहना कदाचित कार न करेंगे।

जीतसिंह––ठीक है, तो उनके लिए दूसरा प्रबन्ध किया किया जायगा।

इन्द्रजीतसिंह––उनका आदमी उनके लिए खेमा वगैरह सामान लेकर आता ही होगा।

जीतसिंह––(इन्द्रदेव से) हमारे पास कोई इत्तिला तो नहीं आई!

इन्द्रदेव––जी, यह काम भी मेरे ही सुपुर्द किया गया था।

जीतसिंह––तो क्या तुम्हारे पास उनका कोई आदमी या पत्र आया था?

इन्द्रजीतसिंह––जी नहीं, वे स्वयं राजा गोपालसिंह के पास यह सुनकर गये थे कि माधवी उन्हीं के यहाँ कैद है, क्योंकि उन्होंने अपने हाथ से माधवी को मार डालने का प्रण किया था...

सुरेन्द्रसिंह––(ताज्जुब से) तो क्या उन्होंने माधवी को अपने हाथों से मारा?

इन्द्रजीतसिंह––जी नहीं, अपने खानदान की एक लड़की को मार कर हाथ रंगने