पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/२०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
209
 

कुछ भी खबर नहीं कि देवीसिंह धीरे-धीरे पैर दबाते हुए इस कमरे में आकर दूर से और कुछ देर से उनकी कार्रवाई देखते हुए ताज्जुब कर रहे हैं। चम्पा तस्वीर बनाने के काम में बहुत ही निपुण और शीघ्र काम करने वाली थी तथा उसे तस्वीरों के बनाने का शौक भी हद से ज्यादा था। देवीसिंह ने उसके हाथ की बनाई हुई सैकड़ों तस्वीरें देखी थीं, मगर आज की तरह ताज्जुब करने का मौका उन्हें आज के पहले नहीं मिला था। ताज्जुब इसलिए कि इस समय जिस ढंग की तस्वीरें चम्पा बना रही थी ठीक उठी ढंग की तस्वीरें देवीसिंह ने भूतनाथ के साथ जाकर नकाबपोशों के मकान में दीवार के ऊपर बनी हुई देखी थीं। कह सकते हैं कि एक स्थान या इमारत की तस्वीर अगर दो कारीगर बनावें तो सम्भव है कि एक ढंग की तैयार हो जायें मगर यहाँ यही बात न थी। नकाबपोशों के मकान में रोहतासगढ़ पहाड़ी की जो तस्वीर देवीसिंह ने देखी थी, उसमें दो नकाबपोश सवार पहाड़ी के ऊपर चढ़ते हुए दिखलाये गये थे जिनमें से एक का घोड़ा मुश्की और दूसरे का सब्जा था। इस समय जो तस्वीर चम्पा बना रही थी, उसमें भी उसी ठिकाने उसी ढंग के दो सवार इसने बनाये थे और उसी तरह इन दोनों सवारों में से भी एक का घोड़ा मुश्की और दूसरे का सब्जा था। देवीसिंह का खयाल है कि यह बात इत्तिफाक से नहीं हो सकती।

ताज्जुब के साथ उस तस्वीर को देखते हुए देवी सिंह सोचने लगे, 'क्या यह तस्वीर इसने यों ही अन्दाज से तैयार की है? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अगर यह तस्वीर इसने अन्दाज से बनाई होती तो दोनों सवार और घोड़े ठीक उसी रंग के न बनते जैसा कि मैं उन नकाबपोशों के यहाँ देख आया हूँ। तो क्या यह वास्तव में उन नकाबपोशों के यहां गई थी? बेशक गई होगी, क्योंकि उस तस्वीर के देखे बिना उसके जोड़ की तस्वीर यह बना नहीं सकती, मगर इस तस्वीर के बनाने से साफ जाहिर होता है कि यह अपनी उन नकाबपोशों के यहाँ जाने वाली बात गुप्त रखना भी नहीं चाहती, मगर ताज्जुब है कि जब इसका ऐसा खयाल है तो वहाँ (नकाबपोशों के घर पर) मुझे देखकर छिप क्यों गई थी? खैर, अब बातचीत करने पर जो कुछ भेद है सब मालूम हो जायगा।

यह सोचकर देवीसिंह दो कदम आगे बढ़े ही थे कि पैरों की आहट पाकर चम्पा चौंकी और घूमकर पीछे देखने लगी। देवीसिंह पर निगाह पड़ते ही कूची और रंग की प्याली जमीन पर रख कर उठ खड़ी हुई और हाथ जोड़कर प्रणाम करने के बाद बोली, "आप सफर से लौट कर कब आये?"

देवीसिंह––(मुस्कुराते हुए) चार-पाँच घण्टे हुए होंगे, मगर यहाँ भी मैं आधी घड़ी से तमाशा देख रहा हूँ।

चम्पा––(मुस्कुराती हुई) क्या खूब! इस तरह चोरी से ताक-झाँक करने की क्या जरूरत थी?

देवीसिंह––इस तस्वीर और इसकी बनावट को देखकर मैं ताज्जुब कर रहा था और तुम्हारे काम में हर्ज डालने का इरादा नहीं होता था।

चम्पा––(हँसकर) बहुत ठीक, खैर, आइये और बैठिये।

देवीसिंह––पहले मैं तुम्हारी इस कुर्सी पर बैठ के इस तस्वीर को गौर से देखूँगा।