नकाबपोश––अब जो कुछ पूछना था पूछ चुके या अभी कुछ बाकी है?
भूतनाथ––हाँ, अभी कुछ और पूछना है।
नकाबपोश––तो जल्दी से पूछते क्यों नहीं, सोचने क्या लग गये?
भूतनाथ––अब यह पूछना है कि मेरी स्त्री आप लोगों के पास कैसे आई और वह खुद आप लोगों के पास आई या उसके साथ जबर्दस्ती की गई?
नकाबपोश––अब तुम दूसरी राह चले, इस बात का जवाब हम लोग नहीं दे सकते।
भूतनाथ––आखिर इसका जवाब देने में हर्ज ही क्या है?
नकाबपोश––हो या न हो, मगर हमारी खुशी भी तो कोई चीज है।
भूतनाथ––(क्रोध में आकर) ऐसी खुशी से काम नहीं चलेगा, आपको मेरी बातों का जवाब देना ही पड़ेगा?
नकाबपोश––(हँसकर) मानो आप हम लोगों पर हुकूमत कर रहे हैं और जबर्दस्ती पूछ लेने का दावा रखते हैं?
भूतनाथ––क्यों नहीं, आखिर आप लोग इस समय मेरे कब्जे में हैं।
इतना सुनते ही नकाबपोश को भी क्रोध चढ़ आया और उसने तीखी आवाज में कहा, "इस भरोसे न रहना कि हम लोग तुम्हारे कब्जे में हैं, अगर अब तक नहीं समझते थे तो अब समझ रक्खो कि उस आदमी का तुम कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते जो अपने हाथों से तुम्हारे छिपे हुए ऐबों की तस्वीर बनाने वाला है। हाँ-हाँ, बेशक तुमने वह तस्वीर भी हमारे मकान में देखी होगी, अगर सचमुच अपने लड़के हरनामसिंह को उस दिन देख लिया है तो।"
यह एक ऐसी बात थी जिसने भूतनाथ के होशहवास दुरुस्त कर दिये। अब तक जिस जोश और दिमाग के साथ वह बैठा बातें कर रहा था वह बिल्कुल जाता रहा और घबराहट तथा परेशानी ने उसे अपना शिकार बना लिया। वह उठकर खड़ा हो गया और बेचैनी के साथ इधर-उधर टहलने लगा। बड़ी मुश्किल से कुछ देर में उसने अपने को सम्हाला और तब नकाबपोश की तरफ देखकर पूछा, "क्या वह तस्वीर आपके हाथ की बनाई हुई थी?"
नकाबपोश––बेशक!
भूतनाथ––तो आप ही ने उस आदमी को वह तस्वीर दी भी होगी जो मुझ उस तस्वीर की बाबत दावा करने के लिए कहता था!
नकाबपोश––इस बात का जबाब नहीं दिया जायगा।
भूतनाथ––तो क्या आप मेरे उन भेदों को दरबार में खोलना चाहते हैं?
नकाबपोश––अभी तक तो ऐसा करने का इरादा नहीं था मगर अब जैसा मुनासिब समझा जायगा, वैसा किया जायगा।
भूतनाथ––उन भेदों को आपके अतिरिक्त आपकी मण्डली में और भी कोई जानता है?
नकाबपोश––इसका जवाब देना भी उचित नहीं जान पड़ता।