भूतनाथ––(खंजर म्यान में रख कर) अच्छा, अब हम आपकी मेहरबानी पर भरोसा करते हैं, जो चाहे कीजिये।
पहला दलीपशाह––(नये दलीप से) आओ जी, तुम मेरे पास बैठ जाओ।
नया दलीपशाह––मैं तो इससे लड़ता ही नहीं मुझे क्या कहते हो? लो, मैं तुम्हारे पास बैठ जाता हूँ। मगर यह तो बताओ कि अब इसी भूतनाथ के कब्जे में पड़े रहोगे या यहाँ से चलोगे भी?
पहला दलीपशाह––(भूतनाथ से) कहो अब मेरे साथ क्या सलूक करना चाहते हो? तुम्हें मुनासिब तो यही है कि हमें कैद करके दरवार में ले चलो।
भूतनाथ––नहीं, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है, बल्कि आप मुझे माफी की उम्मीद दिलाइये तो मैं यहाँ से चला जाऊँ।
पहला दलीपशाह––हाँ, तुम माफी की उम्मीद कर सकते हो, मगर इस शर्त पर कि अब हम लोगों का पीछा न करोगे!
भूतनाथ––नहीं, अब ऐसा न करूँगा। चलिए मैं अब आपको ठिकाने पहुँचा दूँ।
नया दलीपशाह––हमें अपना रास्ता मालूम है, किसी मदद की जरूरत नहीं।
इतना कहकर नया दलीपशाह उठ खड़ा हुआ और साथ ही वे दोनों नकाबपोश भी जिन्हें भूतनाथ बेहोश करके लाया था उठे और अपने मकान की तरफ चल पड़े।
15
महाराज सुरेन्द्रसिंह के दरबार में दोनों नकाबपोश दूसरे दिन नहीं आये, बल्कि तीसरे दिन आये और आज्ञानुसार बैठ जाने पर अपनी गैरहाजिरी का सबब एक नकाबपोश ने इस तरह बयान किया––
"भैरोंसिंह और तारासिंह को साथ लेकर, यद्यपि हम लोग इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के पास गये थे। मगर रास्ते में कई तरह की तकलीफ हो जाने के कारण जुकाम (सर्दी) और बुखार के शिकार बन गये, गले में दर्द और रेजिश के सबब से साफ बोला नहीं जाता था। बल्कि अभी तक आवाज साफ नहीं हुई, इसीलिए कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने जोर देकर हम लोगों को रोक लिया और दो-तीन अपने पास से हटने न दिया, लाचार हम लोग हाजिर न हो सके। उन्होंने एक चिट्ठी भी महाराज के नाम की दी है।"
यह कहकर नकाबपोश ने एक चिट्ठी जेब से निकाली और उठ कर महाराज के हाथ में दी। महाराज ने बड़ी प्रसन्नता से वह चिट्ठी जो खास इन्द्रजीतसिंह के हाथ की लिखी हुई थी, पढ़ी और इसके साथ बारी-बारी से सभी के हाथ में वह चिट्ठी घूमी। उसमें प्रणाम इत्यादि के बाद यह लिखा हुआ था––
"आपके आशीर्वाद से हम लोग प्रसन्न हैं। दोनों ऐयारों के न होने से जो तकलीफ थी, अब वह भी जाती रही। रामसिंह और लक्ष्मणसिंह ने हम लोगों की बड़ी