पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/२४२

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बैठ गये तब भूतनाथ ने जवाब दिया––

भूतनाथ––(दोनों नकाबपोशों की तरफ बताकर) जहाँ तक मैं खयाल करता हूँ, ये दोनों नकाबपोश वे ही हैं, जिन्हें मैं गिरफ्तार करके ले गया था। (नकाबपोशों से) क्यों साहबो?

एक नकाबपोश––ठीक है, मगर हम लोगों को ले जाकर तुमने क्या किया, सो महाराज को मालूम नहीं है।

भूतनाथ––हम लोग एक साथ ही अपने-अपने स्थान की तरफ रवाना हुए थे, ये दोनों तो बे-खटके अपने घर पर पहुँच गए होंगे, मगर मैं एक विचित्र तमाशे के फेर में पड़ गया था।

जीतसिंह––वह क्या?

भूतनाथ––(कुछ संकोच के साथ) क्या कहूँ, कहते हुए शर्म मालूम होती है!

देवीसिंह––ऐयारों को किसी घटना के कहने में शर्म न होनी चाहिए, चाहे उन्हें अपनी दुर्गति का हाल ही क्यों न कहना पड़े, और यहाँ कोई गैर-शख्स भी बठा हुआ नहीं है। ये नकाबपोश साहब भी अपने ही हैं, तुम खुद देख चुके हो कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने इनके बारे में क्या लिखा है।

भूतनाथ––ठीक है, मगर खैर, जो होगा देखा जायेगा। मैं बयान करता हूँ, सुनिये। इन नकाबपोशों को बिदा करने के बाद जिस समय मैं वहाँ से रवाना हुआ, रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। जब मैं 'पिपलिया' वाले जंगल में पहुँचा, जो यहाँ से दो-ढाई कोस होगा, तो गाने की मधुर आवाज मेरे कानों में पड़ी और मैं ताज्जुब से चारों तरफ गौर करने लगा। मालूम हुआ कि दाहिनी तरफ से आवाज आ रही है, अतः मैं रास्ता छोड़ धीरे-धीरे दाहिनी तरफ चला और गौर से उस आवाज को सुनने लगा। जैसे-जैसे आगे बढ़ता था, आवाज साफ होती जाती थी और यह भी जान पड़ता था कि मैं इस स्वर से अपरिचित नहीं, बल्कि कई दफे सुन चुका हूँ, अतः उत्कण्ठा के साथ कदम बढ़ाकर चलने लगा। कुछ और आगे जाने के बाद मालूम हुआ कि दो औरतें मिलकर बारी-बारी से गा रही हैं, जिनमें से एक की आवाज पहचानी हुई है। जब उस ठिकाने पहुँच गया जहाँ से आवाज आ रही थी तो देखा कि बड़ के एक बड़े और पुराने पेड़ के ऊपर कई औरतें गा रही हैं। वहाँ बहत ठाधिकार हो रहा था, इसलिए इस बात का पता नहीं लग सकता था कि वे औरतें कौनम्ह कैसी और किस रंग-ढंग की हैं तथा उनका पहनावा कैसा है।

मैं भले-बुरे का कुछ ख़याल न करके उस पेड़ के नीचे चला गया और तिलिस्मी खंजर अपने हाथ में लेकर रोशनी के लिए उसका कब्जा दबाया। उसकी तेज रोशनी से चारों तरफ उजाला हो गया और पेड़ पर चढ़ी हुई वे औरतें साफ दिखाई देने लगीं। मैं उनके पहचानने की कोशिश कर ही रहा था कि यकायक उस पेड़ के चारों तरफ चक्र की तरह आग भभक यो और तुरन्त ही वह बुझ गई। जैसे किसी ने बारूद की ढेर में आग दी हो और वह भक कर उड़ जाने के बाद वहाँ केवल धुआँ-ही-धुआँ रह जाये, ठीक वैसा ही मालूम हुआ। आग बुझ जाने के साथ ही ऐसा जहरीला और कडुआ धुआँ फैला कि मेरी तबीयत घबरा गई और मैं समझ गया कि इसमें बेहोशी का असर जरूर है और मेरे साथ