तुम्हारी लीला इस बाग में आने के पहले ही गिरफ्तार कर ली गई।
माधवी––तो क्या हम लोग किसी तरह अब इस बाग के बाहर नहीं जा सकते?
नकाबपोश––जीते जी तो नहीं जा सकते, मगर जब तुम लोग मर जाओगे, तब सभी की लाशें जरूर फेंक दी जायेंगी!
जिस मकान में मायारानी उतरी थी, उसी के बरामदे में वह नकाबपोश टहल रहा था। बरामदे के आगे किसी तरह की आड़ या रुकावट न थी। मायारानी उससे बातें करती जाती और छिपे ढंग से अपने तिलिस्मी तमंचे को भी दुरुस्त करती जाती थी तथा रात होने के सबब यह बात उस नकाबपोश को मालूम न हुई। जब वह माधवी से बातें करने लगा, उस समय मौका पाकर मायारानी ने तिलिस्मी तमंचा उस पर चलाया। गोली उसकी छाती में लगकर फट गई और बेहोशी का धुआँ बहुत जल्द उसके दिमाग में चढ़ गया, साथ ही वह आदमी बेहोश होकर जमीन पर लुढ़कता हुआ मायारानी के आगे आ पड़ा। भीमसेन ने झपट कर उसकी नकाब हटा दी और चौंककर बोल उठा, "वाह-वाह! यह तो राजा गोपालसिंह हैं।"
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कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह और सरयू को बड़ा तब ही ताज्जुब हुआ जब उन्होंने एक-एक करके सात आदमियों को तिलिस्मी बाग में पहुँचाये जाते देखा। जब उस मकान की खिड़की बन्द हो गई और चारों तरफ सन्नाटा छा गया तब इन्द्रजीतसिंह ने कहा, "उस तरफ चल कर देखना चाहिए कि ये लोग कौन हैं।"
आनन्दसिंह––जरूर चलना चाहिए।
सरयू––कहीं हम लोगों के दुश्मन न हों।
आनन्दसिंह––अगर दुश्मन भी होंगे तो हमें कुछ परवाह न करनी चाहिए, हम लोग हजारों में लड़ने वाले हैं।
इन्द्रजीत––अगर हम दस-बीस आदमियों से डरकर चलेंगे तो कुछ भी न कर सकेंगे।
इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने उस तरफ कदम बढ़ाया। आनन्दसिंह उनके पीछे-पीछे रवाना हुए, मगर सरयू को साथ आने की आज्ञा नहीं दी और वह उसी जगह रह गई।
पास पहुँचकर कुमारों ने देखा कि सात आदमी जमीन पर बेहोश पड़े हैं। सभी के बदन पर स्याह लबादा और चेहरों पर स्याह नकाब था। थोड़ी देर तक दोनों ताज्जुब की निगाह से उन सभी की ओर देखते रहे और इसके बाद एक के चेहरे पर से नकाब हटाने का इरादा किया, मगर उसी समय ऊपर से पुनः दरवाजा या खिड़की खुलने की आवाज आई।