चन्द्रकान्ता सन्तति
तेईसवाँ भाग
1
सोहागरात के दिन कुंअर इन्द्रजीतसिंह जैसे तरवुद और फेर में पड़ गये थे, ठीक वैसा तो नहीं मगर करीब उसी ढंग का बखेड़ा कुंअर आनन्दसिंह के साथ भी मचा, अर्थात् उसी दिन रात के समय जब आनन्दसिंह और कामिनी का एक कमरे में मेल हुआ तो आनन्दसिंह छेड़छाड़ करके कामिनी की शर्म को तोड़ने और कुछ बातचीत करने के लिए उद्योग करने लगे मगर लज्जा और संकोच के बोझ से कामिनी हर तरह दबी जाती थी। आखिर थोड़ी देर की मेहनत, चालाकी तथा बुद्धिमानी की बदौलत आनन्द- सिंह ने अपना मतलब निकाल ही लिया और कामिनी भी, जो बहुत दिनों से दिल के खजाने में आनन्दसिंह की मुहब्बत को हिफाजत के साथ छिपाये हुए थी, लज्जा और डर को बिदाई का बीड़ा दे कुमार से बातचीत करने लगी।
जब रात लगभग दो घण्टे के बाकी रह गई तो कामिनी जाग पड़ी और घबराहट के साथ चारों तरफ देख के सोचने लगी कि कहीं सवेरा तो नहीं हो गया क्यों कि कमरे के सभी दरवाजे बन्द रहने के कारण आसमान दिखाई नहीं देता था। उस समय आनन्दसिंह गहरी नींद में सो रहे थे और उनके खर्राटों की आवाज से मालूम होता था कि वे अभी दो-तीन घंटे तक बिना जगाये नहीं जाग सकते अतः कामिनी अपनी जगह से उठी और कमरे की कई छोटी-छोटी खिड़कियों (छोटे दरवाजों) में से, जो मकान के पिछली तरफ पड़ती थीं, एक खिड़की खोलकर आसमान की तरफ देखने लगी। इस तरफ से पतित-पावनी भगवती जाह्नवी की तरल तरंगों की सुन्दर छटा दिखाई देती थी जो उदास उदास और बुझे दिल को एक दफे प्रसन्न करने की सामर्थ्य रखती थी, परन्तु इस समय अंधकार के कारण कामिनी उस छटा को नहीं देख सकती थी और इस सबब से आसमान की तरफ देखकर भी वह इस बात का पता न लगा सकी कि अब रात कितनी बाकी है, मगर सवेरा होने में अभी देर है इतना जान कर उसके दिल को कुछ भरोसा हुआ। उसी समय सरकारी पहरे वाले ने घंटा बजाया जिसे सुनकर कामिनी ने निश्चय कर लिया कि रात अभी दो घंटे से कम बाकी नहीं है। उसने उसी तरफ की एक और खिड़की खोल दी और तब यह उस जगह चली गई जहाँ चौकी के ऊपर गंगा-