पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१२८

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न ज्यादे देर तक ऐसी दिल्लगी सह सकता हूँ। मेरा हुक्म है कि तुम तुरत अपना चेहरा धो डालो, नहीं तो तुम्हारे साथ जबर्दस्ती की जायगी, फिर पीछे दोष न देना!

यह सुनते ही कामिनी घबड़ाकर उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई कि 'आज भोर-ही-भोर ऐसी दुर्दशा में फंसी हूँ, न मालूम दिन कैसा बीतेगा, उस चौकी के पास चली गई जिस पर जल से भरा गंगाजमनी लोटा हुआ रक्खा था और पास ही में एक बड़ा सा आफताबा भी था। पानी से अपना चेहरा साफ किया और दो-चार कुल्ला भी करने के बाद रूमाल से मुंह पोंछ आनन्दसिंह से बोली, “कहिये, मैं वही हूँ कि बदल गई?"

कामिनी के साथ-ही-साथ आनन्दसिंह भी बिछावन पर से उठकर वहाँ तक चले आये थे जहाँ पानी और आफताबा रक्खा हुआ था। जब कामिनी ने मुंह धोकर उनकी तरफ देखा तो कुमार के ताज्जुब की कोई हद न रही और वह पत्थर की मूरत बनकर एकटक उसकी तरफ देखते खड़े रह गये । इस समय खिड़कियों में से आसमान पर सुबह की सुफेदी फैली हुई दिखाई दे रही थी और कमरे में भी रोशनी की कमी न थी।

कामिनी--(कुछ चिढ़ी हुई आवाज से) कहिये-कहिये, क्या मैं मुंह धोने से कुछ बदल गई ? आप बोलते क्यों नहीं?

आनन्दसिंह--(एक लम्बी साँस लेकर) अफसोस ! तुम्हारे पूंघट ने मुझे धोखा दिया । अगर मिलाप के पहले तुम्हारी सूरत देख लेता तो धर्म नष्ट क्यों होता!

कामिनी--(जिसे अब हम लाडिली लिखेंगे, क्योंकि यह वास्तव में लाड़िली ही है) फिर भी आप उसी ढंग की बातें कर रहे हैं और अभी तक अपने को छोटे कुमार समझते हैं । इतना हिलने-डोलने पर भी आपके दिमाग से स्वप्न का गुवार न निकला। (कमरे में लटकते हुए एक बड़े आईने की तरफ उँगली से इशारा करके) अब आप उसमें अपना चेहरा देख लीजिये तो मुझसे बातें कीजिये!

कुंअर आनन्दसिंह भी यही चाहते थे, अतः वे उस आईने के सामने चले गये और बड़े गौर से अपनी सूरत देखने लगे । लाडिली भी उनके साथ-ही-साथ उस आईने के पास चली गई और जब वे ताज्जुब के साथ आईने में अपना चेहरा देख रहे थे तो बोली, “कहिये, अब भी आप अपने को छोटे कुमार ही समझते हैं या और कोई?"

क्रोध के साथ-ही-साथ शामिन्दगी ने भी आनन्दसिंह पर अपना कब्जा कर लिया और वे घबड़ा कर अपनी पोशाक पर ध्यान देने लगे, मगर उसमें किसी तरह की खराबी न पाकर उन्होंने पुनः लाडिली की तरफ देखा और कहा, "यह क्या मामला है ? मेरी सूरत किसने बदली?"

लाड़िली--(ताज्जुब और घबराहट के ढंग पर) क्या आप अपनी सूरत बदली हुई समझते हैं?

आनन्दसिंह--बेशक!

लाड़िली--(अफसोस के साथ हाथ मलकर) अफसोस ! अगर यह बात ठीक है तो बड़ा ही गजब हुआ!

आनन्दसिंह--जरूर ऐसा ही है, मैं अभी अपना चेहरा धोता हूँ।

इतना कहकर कुंअर आनन्दसिंह उस चौकी के पास चले गये जिस पर पानी