पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१४

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जरूर ही कहे होंगे?

भूतनाथ-बेशक जो कुछ काम मैं करता था वह हमेशा ही इन्द्रदेव से पूरा-पूरा कह देता था।

जीतसिंह-तो फिर इन्द्रदेव ने दारोगा को क्यों छोड़ दिया? सजा देना तो दूर रहा, इन्होंने गुरुभाई का नाता तक नहीं तोड़ा।

भूतनाथ-(एक लम्बी साँस लेकर और उँगली से इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इनके ऐसा भी बहादुर और मुरौवत का आदमी मैंने दुनिया में नहीं देखा । इनके साथ जो कुछ सलूक मैंने किया था उसका बदला भी अपने एक ही काम से इन्होंने ऐसा अदा किया कि जो इनके सिवाय दूसरा कर ही नहीं सकता था और जिससे मैं जन्म भर इनके सामने सिर उठाने लायक न रहा, अर्थात् जब मैंने रिश्वत लेकर दारोगा को छोड़ देने और कलमदान दे देने का हाल इनसे कहा, तो सुनते ही इनकी आँखों में आंसू भर आये और एक लम्बी साँस लेकर इन्होंने मुझसे कहा, "भूतनाथ, तुमने यह काम बहुत ही बुरा किया। किसी दिन इसका नतीजा बहुत ही खराब निकलेगा ! खैर, अब तो जो कुछ होना था हो गया, तुम मेरे दोस्त हो अतः जो कुछ तुम कर आये, उसे मैं भी मंजूर करता हूँ और दारोगा को एक दम भूल जाता हूँ । अब मेरी लड़की और स्त्री पर चाहे कैसी आफत क्यों न आये और मुझे भी चाहे कितना ही कष्ट क्यों न भोगना पड़े, मगर आज से दारोगा का नाम भी न लूंगा और न अपनी स्त्री के विषय में ही किसी से कुछ जिक्र करूँगा, जो कुछ तुम्हें करना हो करो और उस कम्बख्त दारोगा से भले ही कह दो कि 'इन बातों की खबर इन्द्रदेव को नहीं दी गई।' मैं भी अपने को ऐसा ही बनाऊँगा कि दारोगा को किसी तरह का खुटका न होगा और वह मुझे निरा उल्लू ही समझता रहेगा।" इन्द्रदेव की बात मेरे कलेजे में तीर की तरह लगी और मैं यह कहकर उठ खड़ा हुआ कि "दोस्त, मुझे माफ करो, बेशक मुझसे बड़ी भूल हुई है । अब मैं दारोगा को कभी न छोडूंगा और जो कुछ उससे लिया है उसे वापस कर दूंगा।" मगर इतना कहते ही इन्द्रदेव ने मेरी कलाई पकड़ ली और जोर के साथ मुझे बैठाकर कहा, “भूत-मैंने यह बात तुमसे ताने के ढंग पर नहीं कही है कि सुनने के साथ ही तुम उठ खड़े हुए। नहीं-नहीं, ऐसा कभी न होने पायेगा, हमने और तुमने जो कुछ किया और जो कहा सो कहा, अब उसके विपरीत हम दोनों में से कोई भी न जा सकेगा!"

सुरेन्द्र सिंह-शाबाश !

इतना कहकर सुरेन्द्र सिंह ने गहरी मुहब्बत की निगाह से इन्द्रदेव की तरफ देखा और भूतनाथ ने फिर इस तरह कहना शुरू किया-

भूतनाथ-मैंने बहुत कुछ कहा मगर इन्द्रदेव ने एक न माना और एक बहुत बड़ी कसम देकर मेरा मुंह बन्द कर दिया, मगर इस बात का नतीजा यह निकला कि उसी दिन से हम दोनों दोस्त दुनिया से उदासीन हो गये । मेरी उदासीनता में तो कुछ कसर न रह गई मगर इन्द्रदेव की उदासीनता में किसी तरह की कसर न रही। यही सबब था कि इन्द्रदेव के हाथ से दारोगा बच गया और दारोगा इन्द्रदेव की तरफ से (मेरे कहे मुताबिक) बेफिक्र रहा।