पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१६७

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साफ छोड़ दिया गया कि फिर भी सुधर जाय मगर नहीं-

भूयोपि सिक्तः पयसा घृतेन

न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति

अर्थात् "नीम न मीठो होय जो सींचो गुड़ घीउ से।"

आखिर नानक को वह दुःख भोगना ही पड़ा जो उसकी किस्मत में बदा हुआ था। जिस समय नानक गिरफ्तार करके लाया गया और लोगों ने उसका हाल सुना उस समय सभी को उसकी नालायकी पर बहुत ही रंज हुआ। महाराज की आज्ञानुसार वह कैदखाने में पहुँचाया गया और सभी को निश्चय हो गया कि अब इसे किसी तरह छुटकारा नहीं मिल सकता।

दूसरे दिन दरबारे-आम का बन्दोबस्त किया गया और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए बड़े शौक से लोग इकट्ठा होने लगे । हथकड़ियों-बेड़ियों से जकड़े हुए कैदी लोग हाजिर किए गए और आपस वालों तथा ऐयारों को साथ लिए हुए महाराज भी दरबार में आकर एक ऊँची गद्दी पर बैठ गये । आज के दरबार में भीड़ मामूली से बहुत ज्यादा थी और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए सभी उतावले हो रहे थे। भरतसिंह, दलीपशाह, अर्जुनसिंह तथा उनके और भी दो साथी, जो तिलिस्म के बाहर होने के बाद अपने घर चले गए थे और अब लौट आये हैं, अपने-अपने चेहरों पर नकाब डाल कर दरबार में राजा गोपालसिंह के पास बैठ गये और महाराज के हुक्म का इन्तजार करने लगे।

महाराज का इशारा पाकर भरतसिंह खड़े हो गए और उन्होंने दारोगा तथा जयपाल की तरफ देखकर कहा-

"दारोगा साहब, जरा मेरी तरफ देखिए और पहचानिए कि मैं कौन हूँ। जय- पाल, तू भी इधर निगाह कर!"

इतना कहकर भरतसिंह ने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी और एक दफा चारों तरफ देखकर सभी का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया। सूरत देखते ही दारोगा और जयपाल थर-थर कांपने लगे। दारोगा ने लड़खड़ाई हुई आवाज से कहा, "कौन ? ओफ, भरतसिंह ! नहीं-नहीं, भरतसिंह कहाँ ? उसे मरे बहुत दिन हो गए, यह तो कोई ऐयार है!"

भरतसिंह-नहीं-नहीं, दारोगा साहब ! मैं ऐयार नहीं हूं, मैं वही भरतसिंह हूँ जिसे आपने हद से ज्यादा सताया था, मैं वही भरतसिंह हूँ जिसके मुंह पर आपने मिर्च का तोबड़ा चढ़ाया था और मैं वही भरतसिंह हूँ जिसे आपने अंधेरे कुएं में लटका दिया था । सुनिये मैं अपना किस्सा बयान करता हूँ और यह भी कहता हूँ कि आखिर में मेरी जान क्योंकर बची। जयपालसिंह, आप भी सुनिए और हुंकारी भरते चलिए।

इतना कहकर भरतसिंह ने अपना किस्सा आदि से कहना आरम्भ किया जैसा कि हम ऊपर बयान कर आये हैं और इसके बाद यों कहने लगे-

भरतसिंह--दारोगा की बातों ने मुझे घबरा दिया और मैं उलटे पैर मोहनजी