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निराला
पूरे सन्देह की दृष्टि से थानेदार साहब ने युवक को देखा। व्यंग्य करते हुए बोले—"आप जब गये थे, तब पानी में डूबा हुआ यह साफ़ आवाज़ निकाल रहा था, पर आपके यहाँ आते ही इसकी ज़बान में ताला पड़ गया।"
युवक ने भी व्यंग्य किया—"जी हाँ, जब यहाँ मरा रक्खा है, तो वहाँ भी क्यों न मरा रक्खा होगा?"
क्रूर दृष्टि से थानेदार साहब ने युवक को घूरा। कहा—और 'चौक से आ'—इसके क्या मानी?"
"यह मैं क्या बताऊँ? मैंने पूछा था, वह सवाल ऊपर लिखा हुआ तुम कैसे मारे गए, तो 'चौक से आ' कहकर चुप हो गया।"
"फिर 'किसने मारा?'—'मह'। 'मह' ने मारा? 'मह' क्या बला है?"
युवक थानेदार साहब की स्वगतोक्ति सुनकर मन-ही-मन भारतवर्ष की पुलिस के साथ वलायत की पुलिस को मिला रहा था, इसी समय सिपाही बाबू महेश्वरीप्रसाद के यहाँ से संवाद लेकर लौटा, दारोग़ाजी से कहा—"बाबू महेश्वरीप्रसाद बँगले में नहीं, उनके नौकर ने कहा है, कल अदालत से लौटकर शामवाली गाड़ी से वकील साहब घर गये हैं।"
थानेदार साहब की शंका बढ़ गई। पर रह-रहकर सोच रहे थे—"इसने वकील साहब का नाम क्यों लिया?" समाधान करते थे—"मुमकिन, किसी दुश्मन पर होनेवाली वारदात के लिये वकील ने पहले से कह रक्खा हो कि हम ऐसा कह देंगे, तो तुम छुट जाओगे।" निश्चय किया—"यह जैसा तगड़ा है, यह अकेला भी इसे मार सकता है।"
मन में विश्वास भर गया, इसलिये स्वर भी शंका के बाद निश्चय में बदल गया। मृतक के कपड़ों की जाँच करते हुए दारोग़ाजी को जेब में जनेऊ मिला। निश्चय पर ज़ोर पड़ा—यह जनेऊ छिपाया गया है। पूछा—"यह जनेऊ किसने निकाला?"