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चतुरी चमार



५७


मैंने मन में कहा, अब इञ्जानिब नहीं जाने के। कई रोज़ हो गए, नहीं गया। वहाँ कभी-कभी माँ के कमरे में (श्रीपरम-हंसदेव की धर्मपत्नी श्रीश्री- सारदामणिदेवी, तब माँ देह छोड़ चुकी थीं) तुलसीकृत रामायण पढ़ता था। पहले दिन पढ़ी थी, तब स्वामी सारदानन्दजी ने प्रसाद के दो रसगुल्ले दिलाये थे। सबको एक रसगुल्ला मिलता है। केवल शंकर महाराज (स्वामी सारदानन्दजी के बड़े गुरुभाई, श्रीरामकृष्ण-मिशन के प्रथम प्रेसीडेण्ट, पूज्य-पाद स्वामी ब्रह्मानन्दजी के प्रिय शिष्य) को दो रसगुल्ले पाते हुए बाद को मैंने देखा था, पर उन्होंने एक रसगुल्ला मुझे दे दिया था। एक बार माँ को प्रणामकर, प्रसाद लेकर मैं स्वामी सारदानन्दजी महाराज के ज़ीने की तरफ़ से उतरने के लिये जा रहा था, प्रसाद मेरे हाथ में था, मन बड़ा प्रफुल्ल, फूल-सा खिला हुआ, हल्का; गोस्वामी तुलसीदासजी की भारतीय संस्कृति मन को ढके हुए; स्वामीजी आ रहे थे, मुझे भावावेश में देखकर, रास्ता छोड़कर एक तरफ़ हट गए; मुझे होश था ही, मैं भी हटकर खड़ा हो गया कि यह चले जाएँ, तो जाऊँ। स्वामीजी ने पूछा—"यह प्रसाद किसके लिये लिये जा रहे हो?" (स्वामीजी से मेरी बँगला में बातचीत होती थी) मैंने कहा—"अपने लिये।" उन्होंने कहा—"अच्छा, खाकर आओ।" चटपट प्रसाद खाकर मैं ऊपर गया। स्वामीजी अपने कमरे के सामने उसी रास्ते पर खड़े थे। मुझे देखकर बड़े स्नेह से पूछा—"उस रोज़ तुम क्या कहनेवाले थे?" मैंने कहा—"मुझे तंत्र-मंत्र पर विश्वास नहीं।" उन्होंने पूछा—"तुम गुरुमुख हो?" मैंने कहा—"हाँ, पर तब मैं नौ साल का था।" उन्होंने कहा—"हम लोग तो श्रीरामकृष्ण को ही ईश मानते हैं।" मैंने कहा—"ऐसा तो मैं भी मानता हूँ।" उत्तर की मैंने कभी देर नहीं की, वह ठीक हो, ग़लत। पहले क्या कह गया हूँ, फिर क्या कह रहा हूँ, इसकी तरफ़ ध्यान देनेवाला सच्चा वक़्ता, लेखक, कवि या दार्शनिक नहीं—वकला की मुक्ति में गण्य नहीं, कलाकारों के ऐसे कथन का मैं सजीव उदा-