पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१३५

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चन्द्रकान्ता सन्तति ७६ इनकी हालत अजब गौम में पड़ी हुई है । जब उसे औरत का ध्यान आता था जो बेचैन हो जाता था मगर जब देवीसिंह की बात को यदि करते थे कि वह ४ाकुओं के एक गिरोह की सर्दार है तो कले ३ में अजीब तरह का दर्द पैदा होता था और थोड़ी देर के लिए चित्त का भाव बदल जाता था, लेकिन साथ ही इसके सोचने लगते थे कि नहीं अगर वह हम लोगों की दुश्मन होती तो मेरी तरफ देख कर प्रेम भाव से कभी न हँसती अौर फून के गुलदस्ते और गज३ सजाने के लिए जवे उस कमरे में आई थी तो हम लोगों को नींद में गाफिल प कर जरूर मार डालती । पर फिर हम लोगो की दुश्मन अगर नहीं तो उन डाकुओं का साथ कैसा ! ऐसे ऐसे सोच विचार ने उनकी अवस्था खराब कर रखी थी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह भैरोसिंह श्रीर तारसिंह को उनके दी का पता कुछ कुछ लग चुका था मगर अब तक उसकी इज्जत झावरू श्रौर जात पात की व वर के सथ साथ यह भी न मालूम हो जाये कि वह दोस्त है या दुश्मन, तब तक कुछ कहना सुनना या समझनः मुनासिब नहीं समझते थे । गजर वीरेन्द्रसिंह को अब यह चिन्ता हुई कि जिस तरह वह भारत इस घर में श्री पच, कहीं डाकू लोग भी कर लहकों को दुःख न हैं अौर फसाद न मवायें । उन्होंने पहरे वगैरह का अच्छी तरह इन्तजाम किया और यह सोच कर कि कुँअर इन्द्रजीतसिह अभी तन्दुरुस्त नहीं हुए हैं कमजोरी बनी हुई है श्रीर किसी तरह लडभिड़ नहीं सकते, इनके अकेले छोड़ना मुनासिब नहीं, अपने सोने का इन्तजाम भी उसी फमरे में किया और साथ ही एक नया और विचित्र तमाशा देखा है। दम ऊरर लिख आए हैं कि इस कमरे के दोनों तरफ दें। कोटडिया हैं, एक में मया पून का सामान है श्रीर दूसरी वी विचित्र फोठडी हैं। (इस से बद श्रन पैदा हुई थी ! सध्या पूजा वाली कोटडी में बाहर से ताना उन्द कर दिया गया और दूसरो कोठटी का कुलाबा वगैरह