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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ती सन्तक्ति परवाह उन्हें जर मी न रही, असल तो यह है कि इन्द्रजीतसिंह को वे पहिचानते भी न थे। बेचारी किशोरी की ज्या देशा थी और वह किस तरह रो रो कर अपने सिर के बाल नोच रही थी इसके बारे में इतना ही कहना बहुत है कि अगर दो दिन तक उसकी यही दशा रही तो किसी तरह जीती म बचेगी और “दा इन्द्रजीतसिंह, हा इन्द्रजीतसिंह ।” कहते कहते प्राण छोड़ देगी । | दीवान साहब के घर में उनकी जोरू और किशोरी ही के बराबर की एक कुँआरी लड़की थी जिसका नाम कामिनी था और वह जितनी खूबसूरत थी उतनी ही स्वभाव की भी अच्छी थी दीवान साईवे की लो का भी स्वभाव और चानचलन अच्छा था मगर वह बेचारी अपने पति के दुष्ट स्वभाव और बुरे व्यवहारों से बरोबर दुःखी रहा करती थी और डर के मारे कभी किसी बात में कुछ रोक टोक न करती, तिस पर भी आठ दस दिन पीछे वह अग्निदत्त के हाथ से जरूर मार खाया करती हैं। बेचारी किशोरी को अपनी सोरू और लडकी के हवाले कर हिफाजत करने के अतिरिक्त समझाने बुझाने को भी ताकीद कर दीवान साहब बाहर चले आये शौर असे दीवानखाने में बैठ सोचने लगे कि किशोरी को किस तरह राजी करना चाहिये, यह अौरत कौन श्रीर किसकी लड़की है, जिन लोगों के साथ यई थी वे लोग कौन हैं, और यही शार धूम फमाद मचाने की उन्हें या अम्रत थी १ चाल ढील श्रीर पोशाक से तो वे लो। शैयार मालूम पड़ते थे मगर यहा उन लोगों के आने का फ्या सर्वत्र या १ इमी सव सोच विचार में अग्निदत्त को अज स्नान तक करने की नौबत न श्रा, दिन भर इधर उधर घूमते तथा लाशों को ठिकाने पनवाते शीर तहकीकात करते चीन या मगर किसी तरह इस बखेड़े फा टोक पना न लगा, ६ मइल के परेवा ने इतना कहा कि दो तीन दिन से तिलोनमा में लोगों पर सख्त ताकीद रखती थी श्रीर