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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति अन० } नहीं । इसी तरह देर तक लोग तज्जुब भरी बातें करते रहे मगर अक्ल ने कुछ गवाही न दी कि यह त्या मामला है। राजा बीरेन्द्रसिंह भी श्री पहुँचे, उनके साथ और भी कई मुसाहिब लोग आ मै, और सभी इस आश्चर्य की बात को सुन कर सोचने और गौर करने लगे । कई दुजदिलों को भूत प्रेत और पिशाच का ध्यान अाया मगर महाराज और दोनों कुमारों के खौफ से कुछ बोल न सके क्योंकि ये लोग ऐसे डरपोक और इम खयाल के ऋदिमी ने ये और न ऐसे श्रादमियों को अपने साथ रखना ही पसन्द करते थे । उन फून के गजरों और गुलदस्तॊ को किसी ने न छेडा और वे ज्यों के त्यों जहा के तहा लगे रह गये । रईसों की हाजिरी और शहर के इन्तजम में दिन बीत गया और रात को फिर कल की तरह दोनों भाई मस पर सो रहे । दोनों ऐयार भी मसहरी के बगल में जमीन पर लेट गये मगर पुस में मिल जुल कर बारी बारी से भागते रहने की विचार दोनों ने ही कर लिया था और अपने बीच में एक लम्बी छड़ी इस लिद रख ली थी कि अगर रात को किसी समय कोई ऐयार कुछ देखे तो बिना मुँह से बोले लकड़ी के इशारे से दूसरे को उठा दे । इन्द्र जीतसिंह प्रौर श्रीनन्दसिंह ने भी कह रक्खी थी कि अगर घर में किसी को देखना तो चुपके से हमें जगा देना जिससे हम लोग भी देख ले कि कौन है और कहा से आता है। श्राधी रात से कुछ प्यादे जा चुकी है। कुँअर इन्द्रजीतसिंह शौर , आनन्दसिंह गहरी नींद में बेसुध पड़े हैं। पारी के मुताबिक लेटे लेटे । तारासिंह वजे की तरफ देख रहे हैं। यकायक पूरन तरफ वाली कोठडी में कुछ अटका हुशा । तारासिंह जर स धूम गये और पड़े पट्टे ही उस कोठडी छ तरफ देने लगे । बारीक चादर पदिले ही से दोनों ऐयारों के मुंह प’ पटी हुई थी और रोशनी अच्छी तरह हो रही थी ।