पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
चन्द्रकान्ता सन्तति
६६
 

________________

६६ । चन्द्रकान्त सन्तति की क्या हालत हो गई यह वे ही जानते होंगे । बहुत बचाये रहने पर भी ठडी साँसे उनसे न रुक सकौं जिससे इम भी कह सकते हैं कि उनके दिल ने उनकी छडी सासों के साथ ही बाहर निकल कर कह दिया कि अत्रे हम तुम्हारे कब्जे में नहीं हैं। कुँअर आनन्दसिंह अपने को संभाल न सके, उठ बैठे और उधर ही देखने लगे जिधर वह औरत किवाड़ का पता थामे वही थी । इनकी यह हालत देख तीन आदमियों को विश्वास हो गया कि वह भाग जायगी, मगर नह , वह इनकी उठ कर बैठते देखे जरा भी न हिचकी, * की त्यों खड़ी रही, बल्कि इन की तरफ देख उसने जरा सा हँस दिया जिससे ये और भी बेचैन हो गए। कुँअर अानन्दसिंह यह सोच कर कि उस कोठडी मैं किसी दूसरी तरफ निकल जाने के लिए दुसरा दवजा नहीं है, मसूरी पर से उठ खड़े हुए श्रीर उस अौरत की तरफ चले । इनको अपनी तरफ आते देख वह शौरत कोठडी में चली गई और फुर्ती से उसका भीतर से बन्द कर लिया । कुँअर इन्द्रजीतसिंह की तबीयत चाहे दुरुस्त हो गई हो मगर कमजोरी अभी तक मौजूट है बल्कि सब जख्म भी अभी तक कुछ गीले हैं इसलिए अभी धूमने फिरने लायक नहीं हुए। इस परी-जमाल को भीतर से किवाई बन्द कर लेते देख मच उठ खड़े हुए, कुँअर इन्द्रजीतसिंह मी तकिये का सहारा लेकर बैठ गए और बोले, “इस कोठड़ी में किसी तरफ से निकल जाने का रास्ता तो नहीं है।” भो । जी नहीं। अनिन्द० 1 ( किवाड में धक्का देकर ) इसे खोलना चाहिए । तार० । दधांजे में लाया जा है ।। प्रानन्द० । कुलामा काटना फ्या मृश्किल है ।