पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/४१

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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्त । सन्तति सोच और फिक्र में तमाम दिन बिताया, पर रात जाते जाते कले की तरह वही सिपाही फिर पहुंचा और मेवी दूध आनन्दसिंह को दिया । आनन्द | लीजिये आपकी फर्मयश तैयार है। सिपाही० } तो बस आप इस मकान के बाहर चलिये । एक रोज के कष्ट में इतनी रकम हाथ आई क्या बुरा हुआ है। । सव कुछ सामान अपने कब्जे में करने वाद सिपाही कमरे के बाहर निकला और सहन में पहुँच कमन्द के जरिये से अनिन्दसिंह को मकान के बाहर निकालने बाद आप भी बाहर हो गया । मैदान की ह्चा लगने सै अानन्दसिंह की जो ठिकाने ही और समझे कि अब जान बची । चार में देने पर मालम हुआ कि यह मकान एक पहाड़ी के अन्दर है Jौर कारीगरों ने पत्थर तोड करे इमे तैयार किया है । इस मकान के अगल बगल में कई मुर में भी दिखाई प १ ।। अानन्दसिंह को लिये ये वह सिपाही कुछ दूर चला गया जहा कसे कमाये दो बड़े पेट से बंधे । वोला, “लीजिये एक पर अपि सवार ऐडये दूसरे पर में चलता है चलिये अापको घर तक पचा ग्राऊ ।” श्रानन्द० } चुनार यहाँ से कितनी दूर और किस तरफ है ? मिपा० । चुनार यहाँ से बीस कोस है। चलिये मैं श्राप के भय चलता है, इन घो में इतनी ताकत है कि सभेरा होते होते हम लोगों को चुनार पहुंचा दें ! श्राप घर चलिये, इन्द्रजीतसिंह के लिये कुछ फिक न कीजिये, उनका पता भी बहुत जल्द लग जायगा, अपके ऐयार लोग उनी पोज में निकले हुये हैं। आनन्द । घो? कहाँ से लाये ? ईमपाही ० | कही से चुरा लाये, इसका कन ठिकाना है ! मानन्द • तैर यह बतलाझो तुम कौन र तुम्हारा नाम क्या है? मिपा० । यह में न बता सकता थेर न आपको इसके बारे में ३ पृथुना मुनासिब ए हैं।