पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/५५

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चन्द्रकान्ता सन्तति
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६२ चन्द्रकान्ता सन्तति उठा ले जाऔ, चुनार के किले के पास इनको रख देना जिसमे होश श्राने पर अपने घर पहुँच जाय, देखो तकलीफ न हो बल्कि होश में लाने की तत्र कर के तत्र तुम इनसे अलग होना और जहाँ भी चाहे चले जाना, हम लोगों से अगर मिलने की जरूरत हो तो इसी जगह झाना ।” सिपाही० । मैरी भी यही राय थी, श्रानन्दसिंह को तकलीफ क्यों होने लगी, क्या मुझको इसका थाल नहीं है ।। यौगिनी० } क्यों नहीं बल्कि मुझसे ज्यादे होगा । अच्छा तुम जाओ जिस तरह बने इस काम को कर लो, हम लोग अथ अपने काम पर नाती है । ( दूसरी औरत की तरफ देख कर जिसने छुरी से उस लाश को काटा था ) चलो बहन चलें, इस छोकडी को इसी जगह छोड़ दो भजे में रहेगी, फिर बुझा जायगा ।। धेने दोन अंरत का अभी बहुत कुछ अल इमै लिखना है इस लिये जा तक इन दोनों का असल भेद और नाम न मालूम हो जाय तछ । तक पाठकों के समझने के लिये कोई फर्जी नाम जरूर रख देना चाहिये। एक का नाम तो योगिनी रख ही दिया गया दूसरी का थनचरो समझ लीजिए ! योगिनी और वनचरी दोन खोह के बाहर निकली और कुछ दनि मुक्ते हुए पूरव का रास्ता लिया । इस समय सूत बीत चुकी थी शौर सुवई की सुफेदी के साये लपलपाते हुए दो चार तारे आसमान पर दिपाई दे रहे थे। पर दिन चढ़े तक ये दोनों बराबर चली गई', जब धूप कुछ कड़ी हुई जंगल में एक जगह् वेज़ ॐ वे की घनी छाँह देख कर टिक गई। जिसके पास ही पानी का झरना भी बह रह था । दोन) ने कमर से वट्टी * होली श्रीर कुछ मेरा निकाल कर पाने तथा पानी पीने के बाद जमीन पर नग्म नग्म पत्ते या कर सो रही । ये दोन तमाम रात की नागी हुई थीं, लेटते ही नींद था गई । टोपहर तक र सोई । जब पहर दिन बाको रहर उठ बैठी और चश्मे