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चन्द्रकान्ता सन्तति
 


ऐयारों को साथ ले घूमने और दिल बहलाने के लिए डेरे से बाहर निकले और टहलते हुए दूर तक चले गए।

ये लोग धीरे धीरे टहलते और बातें करते जा रहे थे कि बायें तरफ से शेर के गरजने की आवाज आई जिसे सुनते ही चारो अटक गए और धूम कर उस तरफ देखने लगे जिधर से वह आवाज आई थी।

लगभग दो सौ गज की दूरी पर एक साधू शेर पर सवार जाता दिखाई पडा जिसकी लम्बी लम्बी और घनी जटाये पीछे की तरफ लटक रही थी एक हाथ में त्रिशूल दूसरे में शख लिए हुए था। इसकी सवारी का शेर बहुत बड़ा था और उनके गर्दन के बाल जमीन तक पहुंच रहे थे।

इसके आठ दस हाथ पीछे एक शेर और जा रहा था जिसकी पीट पर आदमी के बदले बोझ लदा हुया नजर आया। शायद यह असबाब उन्हीं शेर सवार महात्मा का हो।

शाम हो जाने के सबब साधू की सूरत साफ मालूम न पडी तौ भी उसे देव दन चारो को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और कई तरह की बाते सोचने लगे।

इन्द्र०। इस तरह शेर पर सवार हो कर घूमना मुश्किल है।

आनन्द०। कोई अच्छे महात्मा मालूम होते।

मैने०। पीछे वाने शेर को देखिए जिस पर असबाब लदा हुया है किस त भेद की तरह सिर नीचा किए जा रहा है।

तास०। शेरों को बस में कर लिया है।

इन्द्र०। जी चाहता है उनके पास चल कर दर्शन करें।

आनन्द०। अच्ची बात है, चलिए पास से दरों कैसा शेर है।

साग०। बिना पास गए महात्मा और पाखण्टी में भेद भी न मालूम होगा।

भैगे०। शाम तो हो गई है, और चलिए आगे से बढ़ कर रोकें।

आनन्द०। आगे से चल कर गरने से बुरा न मानें।