पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/७५

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चन्द्रकान्ता सन्तति
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इन्द्रकान्ता सन्तति मुन. माधवी के ग्रचिले में चाक्षु इक्षीतसिंह के स ाक्क ब्रोली, *मै साचा ले चुकी, अत्र जाती हैं, कल दूसरी ताली बना कर लाऊ हो, तुम माधवी को रात भर इसी तरह बेहोश पड़ी रहने द्रो । आज वह अपने ठिकाने न जा सको इस लिए सूरे देखना कैसा घडाती है ! सुबह को कुछ दिन चढ़े साधवी फी झाख खुली, घबड़ फर वुः चैट ! उसने अपने दिन का भाव बहुत कुछ छिपाया मगर उसके चेहरे पर बदहवासी बनी ही रही जिससे इन्द्रजीतसिंह समझ गये कि बात इसको । श्राव न खुली र मामूली नह पर ले जा सकी जिसका इसे बहुत रञ्ज है। दुमरे दिन आधी रात बीतने परइन्द्रजीतसिंह को सौता समझ माधवी अपने पन ग पर से उठी, शमादन बुझा कर अलमारी में से ताली नि मानी शोर करे के पर ही उसी के ठी के पास एची, ताला खोले अन्दर राई र भीतर से फिर ताला बन्दु कर लिया | इन्द्र नीतसिंहू भी छिपे हुए माधवी के साथ ही साथ झूमरे के बाहर निकले में, जब वृह कोठरी के अन्दर चली गई तो यह इधुर उधर देखने लगे, उस भाजी औरत को भी पास ही मौजूद पाया ।। माया के ज्ञान के अाधी घी बाद काली औरत ने उसी नई ताली से टडी कर दजा होला जो बुमूचे साचे के शुर में वह अना कुर लाई ३१ झेर इन्द्रनीतसिंह को कथि ले अन्दर जी ने फिर ताला छन्द कर दियः । भीर विकु अन्धेरा था इसलिए फनी शौरत को अपने अद्युए से सामान निकाल मोमनत्ती बलेनी पड़ी जिमसे मालूम हुथी कि इस छटर में रोड़ो में वन ३८ पच्चीस मीदिया नीचे उतरने के लिए बनी ६, र त्रिना रोशन किये ये दोन भागे अदते तो मेकि नचे गिर फर अपने सर मु ६ या वैर मे इथे चावे ।। दोनों नीचे उतरें । कदा एप बन्द दया र भिजा, चद भी उसी ती में 5 या 1 अब एक घन्त लम्बी सुरंग में दूर तक जाने की नव च । गौर बग्ने से रक्त सम होता था कि यह सुर । पहाड़ी के