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युद्धक्षेत्र—सैनिकों के साथ पर्वतेश्वर

पर्व॰—सेनापति, भूल हुई।

सेना॰—हाथियों ने ही ऊधम मचा रक्खा हैं और रथी सेना भी व्यर्थ-सी हो रही हैं।

पर्व॰—सेनापति, युद्ध में जय या मृत्यु-दो में से एक होनी चाहिये।

सेना॰—महाराज, सिकन्दर को वितस्ता पर यह अच्छी तरह विदित हो गया है कि हमारे खड्गों में कितनी धार हैं। स्वयं सिकन्दर का अश्व मारा गया और राजकुमार के भीषण भाले की चोट सिकन्दर न सँभाल सका।

पर्व॰—प्रशंसा का समय नहीं है। शीघ्रता करो। मेरा रणगज प्रस्तुत हो; मैं स्वयं गजसेना का संचालन करूँगा। चलो!

(सब जाते हैं)

[कल्याणी और चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

कल्याणी—चन्द्रगुप्त, तुम्हें यदि मगध सेना विद्रोही जानकर बन्दी बनावे?

चन्द्र॰—बन्दी सारा देश हैं राजकुमारी, दारुण द्वेष से सब जकड़े हैं। मुझको इसकी चिन्ता भी नहीं। परन्तु राजकुमारी का युद्धक्षेत्र में आना अनोखी बात है।

कल्याणी—केवल तुम्हें देखने के लिए! मैं जानती थी कि तुम युद्ध में अवश्य सम्मिलित होंगे और मुझे भ्रम हो रहा है कि तुम्हारे निर्वासन के भीतरी कारणों में एक मैं भी हूँ।

चन्द्र॰—परन्तु राजकुमारी, मेरा हृदय देश की दुर्दशा से व्याकुल है। इस ज्वाला में स्मृतिलता मुरझा गयी है।

कल्याणी—चन्द्रगुप्त!

चन्द्र॰—राजकुमारी! समय नहीं। देखो—वह भारतीयों के

च॰ ८

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