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पर्वतेश्वर का प्रासाद

अलका—सिंहरण मेरी आशा देख रहा होगा और मैं यहाँ पड़ी हूँ! आज इसका कुछ निबटारा करना होगा। अब अधिक नहीं—(आकाश की ओर देखकर)—तारों से भरी हुई काली रजनी का नीला आकाश―जैसे कोई विराट् गणितज्ञ निभृत में रेखा-गणित की समस्या सिद्ध करने के लिए बिन्दु दे रहा हैं।

[पर्वतेश्वर का प्रवेश]

पर्व॰—अलका! बड़ी द्विविधा है।

अलका—क्यों पौरव?

पर्व॰—मैं तुमसे प्रतिश्रुत हो चुका हूँ कि मालव-युद्ध में मैं भाग न लूँगा, परन्तु सिकन्दर का दूत आया है कि आठ सहस्र अश्वारोही लेकर रावी-तट पर मिलो। साथ ही पता चला है, कि कुछ यवन-सेना अपने देश को लौट रही हैं।

अलका—(अन्यमनस्क होकर)—हाँ कहते चलो!

पर्व॰—तुम क्या कहती हो अलका?

अलका—मैं सुनना चाहती हूँ!

पर्व॰—बतलाओ, मैं क्या करूँ?

अलका—जो अच्छा समझो। मुझे देखने दो ऐसी सुन्दर वेणी-फूलों से गूँथी हुई श्यामा-रजनी की सुन्दर वेणी—अहा!

पर्व॰—क्या कह रही हो?

अलका—गाने की इच्छा होती है, सुनोगे?

[गाती है]

बिखरी किरन अलक व्याकुल हो विरस वदन पर चिंता लेख,
छायापथ में राह देखती गिनती प्रणय-अवधि की रेख।
प्रियतम के आगमन-पंथ में उड़ न रही है कोमल धूल,
कादंबिनी उठी यह ढँकने वाली दूर जलधि के कूल।