पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१४३

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रावी-तट के उत्सव-शिविर का एक पथ। पर्वतेश्वर अकेले टहलते हुए

पर्व॰—आह! कैसा अपमान! जिस पर्वतेश्वर ने उत्तरापथ में अनेक प्रबल शत्रुओं के रहते भी विरोधों को कुचल कर गर्व से सिर ऊँचा कर रक्खा था, जिसने दुर्दान्त सिकन्दर के सामने मरण को तुच्छ समझते हुए, वक्ष ऊँचा करके भाग्य से हँसी-ठट्ठा किया था, उसी का यह तिरस्कार ―तो भी एक स्त्री के द्वारा! और सिकन्दर के संकेत से! प्रतिशोध! रक्त-पिशाची प्रतिहिंसा अपने दाँतो से नसों को नोच रही हैं! मरूँ या मार डालूँ? मारना तो असम्भव है। सिंहरण और अलका, वर-वधू-वेश में हैं, मालवों के चुने हुए वीरों से वे घिरे हैं। सिकन्दर उनकी प्रशंसा और आदर में लगा है। इस समय सिंहरण पर हाथ उठाना असफलता के पैरों-तले गिरना है। तो फिर जीकर क्या करूँ?

[छुरा निकाल कर आत्महत्या करना चाहता है, चाणक्य आकर हाथ पकड़ लेता है]

पर्वतेश्वर—कौन?

चाणक्य—ब्राह्मण चाणक्य।

पर्व॰—इस मेरे अन्तिम समय में भी क्या कुछ दान चाहते हो?

चाणक्य―हाँ!

पर्व॰—मैंने अपना राज्य दिया, अब हटो।

चाणक्य—यह तो तुमने दे दिया, परन्तु इसे मैंने तुमसे माँगा न था पौरव!

पर्व॰—फिर क्या चाहते हो?

चाणक्य—एक प्रश्न का उत्तर।

पर्व॰—तुम अपनी बात मुझे स्मरण दिलाने आये हो? तो ठीक है। ब्राह्मण! तुम्हारी बात सच हुई। यवनों ने आर्यावर्त्त को पददलित कर लिया। मैं गर्व में भूला था, तुम्हारी बात न मानी। अब उसी का प्रायश्चित्त करने जाता हूँ! छोड़ दो!