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तृतीय अंक
 


चाणक्य—पौरव! शान्त हो। मैं एक दूसरी बात पूछता हूँ। वृषल चन्द्रगुप्त क्षत्रिय हैं कि नहीं, अथवा उसे मूर्धाभिषिक्त करने में ब्राह्मण से भूल हुई?

पर्व॰—आह, ब्राह्मण! व्यंग्य न करो। चन्द्रगुप्त के क्षत्रिय होने का प्रमाण यही विराट् आयोजन है। आर्य्य चाणक्य! मैं क्षमता रखते हुए जिस कार्य को न कर सका, वह कार्य्य निस्सहाय चन्द्रगुप्त ने किया। आर्य्यावर्त्त से यवनों को निकल जाने का संकेत उसके प्रचुर बल का द्योतक है। मैं विश्वस्त हृदय से कहता हूँ कि चन्द्रगुप्त आर्य्यवर्त्त का एकैच्छत्र सम्राट् होने के उपयुक्त हैं। अब मुझे छोड़ दो .....

चाणक्य—पौरव! ब्राह्मण राज्य करना नहीं जानता, करना भी नहीं चाहता, हाँ, वह राजाओं का नियमन करना जानता है; राजा बनाना जानता है। इसलिए तुम्हें अभी राज्य करना होगा, और करना होगा वह कार्य्य-जिसमें भारतीयों का गौरव हो और तुम्हारे क्षात्रधर्म का पालन हो।

पर्व॰—(छुरा फेंक कर)—वह क्या काम है?

चाणक्य—जिन यवनों ने तुमको लाञ्छित और अपमानित किया है, उनसे प्रतिशोध!

पर्व॰—असम्भव है!

चाणक्य—(हँस कर)—मनुष्य अपनी दुर्बलता से भलीभाँति परिचित रहता है। परन्तु उसे अपने बल से भी अवगत होना चाहिए। असम्भव कहकर किसी काम को करने के पहले कर्मक्षेत्र में काँपकर लड़खडाओ मत पौरव! तुम क्या हो—विचार कर देखो तो! सिकन्दर ने जो क्षत्रप नियुक्त किया है, जिन सन्धियों को वह प्रगतिशील रखना चाहता है, वे सब क्या है? अपनी लूट-पाट को वह साम्राज्य के रूप में देखना चाहता है! चाणक्य जीते-जी यह नहीं होने देगा! तुम राज्य करो।

पर्व॰—परन्तु आर्य्य, मैंने राज्य दान कर दिया है!