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तृतीय अंक
 


चन्द्र॰—(पढ़कर)—आर्य्य, मैं जा भी नहीं सकता।

चाणक्य—क्यों?

चन्द्र॰—युद्ध का आह्वान है। द्वन्द्व के लिए फिलिप्स का निमंत्रण है।

चाणक्य—तुम डरते तो नहीं?

चन्द्र॰—आर्य्य! आप मेरा उपहास कर रहे हैं?

चाणक्य—(हँसकर)—तब ठीक है, पौरव! तुम्हारा यहाँ रहना हानिकारक होगा। उत्तरापथ की दासता के अवशिष्ट चिह्न फिलिप्स का नाश निश्चित है। चन्द्रगुप्त उसके लिए उपयुक्त है। परन्तु यवनों से तुम्हारा फिर संघर्ष मुझे ईष्सित नहीं है। यहाँ रहने से तुम्हीं पर सन्देह होगा, इसलिए तुम मगध चलो। और सिंहरण! तुम सन्नद्ध रहना, यवन-विद्रोह तुम्हीं को शान्त करना होगा।

[सब का प्रस्थान]