पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१८५

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[प्रकोष्ठ में चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

चन्द्रगुप्त—विजयों की सीमा है, परन्तु अभिलाषाओं की नहीं। मन ऊब-सा गया है। झंझटों से घड़ी भर अवकाश नहीं। गुरुदेव और क्या चाहते हैं, समझ में नहीं आता। इतनी उदासी क्यों? मालविका!

माल॰—(प्रवेश करके)—सम्राट्‌ की जय हो!

चन्द्र॰—मैं सब से विभिन्न, एक भय-प्रदर्शन-सा बन गया हूँ। कोई मेरा अन्तरंग नहीं, तुम भी मुझे सम्राट्‌ कहकर पुकारती हो!

माल॰—देव, फिर मैं क्या कहूँ?

चन्द्र॰—स्मरण आता है—मालव का उपवन और उसमें अतिथि के रूप में मेरा रहना?

माल॰—सम्राट्‌, अभी कितने ही भयानक संघर्ष सामने हैं!

चन्द्र॰—संघर्ष! युद्ध देखना चाहो तो मेरा हृदय फाड़कर देखो। मालविका! आशा और निराशा का युद्ध, भावों और अभावों का द्वन्द्व! कोई कमी नहीं, फिर भी न जाने कौन मेरी सम्पूर्ण सूची में रक्त-चिह्न लगा देता है। मालविका, तुम मेरी ताम्बूल-वाहिनी नहीं हो, मेरे विश्वास की, मित्रता की प्रतिकृति हो। देखो, मैं दरिद्र हूँ कि नहीं, तुमसे मेरा कोई रहस्य गोपनीय नहीं! मेरे हृदय में कुछ है कि नहीं, टटोलने से भी नहीं जान पड़ता।

माल॰—आप महापुरुष हैं, साधारणजन—दुर्लभ दुर्बलता नहोनी चाहिए आप में देव! बहुत दिनों पर मैंने एक माला बनायी है—(माला पहनाती है)

चन्द्र॰—मालविका, इन फूलों का रस तो भौंरे ले चुके हैं!

माल॰—निरीह कुसुमों पर दोषारोपण क्यों? उनका काम है सौरभ विखेरना, यह उनका मुक्त दान है। उसे चाहे भ्रमर ले या पवन।

चन्द्र॰—कुछ गाओ तो मन बहल जाय।