पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१८८

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प्रभात––राजमन्दिर का एक प्रान्त

चन्द्रगुप्त--( अकेले टहलता हुआ )--चतुर सेवक के समान ससार को जगा कर अन्धकार हट गया। रजनी की निस्तब्धता काकली से चचल हो उठी है! नीला आकाश स्वच्छ होने लगा है, या निद्राक्लान्तः निशा उपा की शुभ्र चादर ओढ कर नीद की गोद में लेटने चली है। यह जागरण का अवसर है। जागरण का अर्थ है कर्म्मक्षेत्र में अवतीर्ण होना। और कर्मक्षेत्र क्या है? जीवन-सग्राम! किन्तु भीषण सघर्ष करके भी में कुछ नही हूँ। मेरी सत्ता एक कठपुतली-सी है। तो फिर... मेरे पिता, मेरी माता, इनका तो सम्मान आवश्यक था। वे चले गये, मै देखता हूँ कि नागरिक तो क्या, मेरे आत्मीय भी आनन्द मनाने से वचित किये गये। यह परतत्रता कब तक चलेगी? प्रतिहारी!

प्रतिहारी--( प्रवेश करके )--जय हो देव!

चन्द्र०––आर्य्य चाणक्य को शीघ्र लिव लाओ!

[ प्रतिहारी का प्रस्थान ]

चन्द्र०––( टहलते हुए )--प्रतिकार आवश्यक है।

[ चाणक्य का प्रवेश ]

चन्द्र०--आर्य्य, प्रणाम!

चाणक्य--कल्याण हो आयुष्मन्, आज तुम्हारा प्रणाम भारी-सा है!

चन्द्र०--मैं कुछ पूछना चाहता हूँ।

चाणक्य--यह तो मैं पहले ही से समझता था! तो तुम अपने स्वागत के लिए लड़को के सदृश रूठे हो?

चन्द्र०--नही आर्य्य, मेरे माता-पिता--में जानना चाहता हूँ कि उन्हें किसने निर्वासित किया?

चाणक्य--जान जाओगे तो उसका वव करोगे! क्यो?

[ हँसता है ]