पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/२००

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कपिशा में एलेक्जेंड्रिया का राजमन्दिर
[कार्नेलिया और उसकी सखी का प्रवेश]

कार्ने॰—बहुत दिन हुए देखा था!—वही भारतवर्ष! वही निर्मल ज्योति का देश, पवित्र भूमि, अब हत्या और लूट से बीभत्स बनायी जायगी—ग्रीक सैनिक इस शस्यश्यामला पृथ्वी को रक्त-रंजित बनावेंगे! पिता अपने साम्राज्य से सन्तुष्ट नहीं, आशा उन्हें दौड़ावेगी। पिशाची की छलना में पड़कर लाखों प्राणियों का नाश होगा। और, सुना है यह युद्ध होगा चन्द्रगुप्त से!

सखी—सम्राट तो आज स्कन्धावार में जानेवाले हैं!

[राक्षस का प्रवेश]

राक्षस—आयुष्मती! मैं आ गया।

कार्ने॰—नमस्कार। तुम्हारे देश में तो सुना है कि ब्राह्मण जाति बड़ी तपस्वी और त्यागी है।

राक्षस—हाँ कल्याणी, वह मेरे पूर्वजों का गौरव है। किन्तु हमलोग तो बौद्ध हैं।

कार्ने॰—और तुम उसके ध्वंसावशेष हो। मेरे यहाँ ऐसे ही लोगों को देशद्रोही कहते हैं। तुम्हारे यहाँ इसे क्या कहते हैं?

राक्षस—राजकुमारी! मैं कृतघ्न नहीं, मेरे देश में कृतज्ञता पुरुषत्व का चिह्न है। जिसके अन्न से जीवन-निर्वाह होता है उसका कल्याण...

कार्ने॰—कृतज्ञता पाश है, मनुष्य की दुर्बलताओं के फंदे उसे और भी दृढ़ करते हैं। परन्तु जिस देश ने तुम्हारा पालन-पोषण करके पूर्व उपकारों का बोझ तुम्हारे ऊपर डाला है, उसे विस्मृत करके क्या तुम कृतघ्न नहीं हो रहे हो? सुकरात का तर्क तुमने पढ़ा है?

राक्षस—तर्क और राजनीति में भेद है, मैं प्रतिशोध चाहता हूँ। राजकुमारी! कर्णिक ने कहा है -