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चन्द्रगुप्त
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कार्ने॰—कि सर्वनाश कर दो! यदि ऐसा है, तो मैं तुम्हारी राजनीति नहीं पढ़ना चाहती।

राक्षस—पाठ थोड़ा अवशिष्ट है। उसे भी समाप्त कर लीजिए,आपके पिता की आज्ञा है।

कार्ने॰—मैं तुम्हारे उशना और कर्णिक से ऊब गयी हूँ, जाओ!

[राक्षस का प्रस्थान]

कार्ने॰—एलिस! इन दिनों जो ब्राह्मण मुझे रामायण पढ़ाता था, वह कहाँ गया? उसने व्याकरण पर अपनी नयी टिप्पणी प्रस्तुत की है। वह कितना सरल और विद्वान है।

एलिस—वह चला गया राजकुमारी।

कार्ने॰—बड़ा ही निर्लोभी सच्चा ब्राह्मण था। (सिल्यूकस का प्रवेश)—अरे पिता जी!

सिल्यू॰—हाँ बेटी! अब तुमने अध्ययन बन्द कर दिया, ऐसा क्यों? अभी वह राक्षस मुझसे कह रहा था।

कार्ने॰—पिताजी! उसके देश ने उसका नाम कुछ समझ कर ही रक्खा है—राक्षस! मैं उससे डरती हूँ।

सिल्यू॰—बड़ा विद्वान है बेटी! मैं उसे भारतीय प्रदेश का क्षत्रप बनाऊँगा।

कार्ने॰—पिताजी! वह पाप की मलिन छाया है। उसकी भँवों में कितना अन्धकार है, आप देखते नहीं। उससे अलग रहिए। विश्राम लीजिए। विजयों की प्रवंचना में अपने को न हारिए। महाप्वाकांक्षा के दाँव पर मनुष्यता सदैव हारी है। डिमास्थनीज ने...

सिल्यू॰—मुझे दार्शनिकों से तो विरक्ति हो गयी है। क्या ही अच्छा होता कि ग्रीस में दार्शनिक न उत्पन्न हो कर, केवल योद्धा ही होते!

कार्ने॰—सो तो होता ही है। मेरे पिता किससे कम वीर हैं। मेरे विजेता पिता! मैं भूल करती हूँ, क्षमा कीजिए।

सिल्यू॰—यही तो मेरी बेटी! ग्रीक-रक्त वीरता के परमाणु